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24 सितंबर, 2010

भारतीय संस्कृति और एकात्म मानव दर्शन

पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती (२५ सित.) पर विशेष



पं. दीनदयाल उपाध्याय ने व्यक्ति व समाज ” “स्वदेश व स्वधर्म ” तथा परम्परा व संस्कृति ” जैसे गूढ़ विषय का अध्ययन , चिंतन व मनन कर उसे एक दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया । उन्होने देश की राजनैतिक व्यवस्था व अर्थतंत्र का भी गहन अध्ययन कर शुक्र , वृहस्पति , और चाणक्य की भांति आधुनिक राजनीति को शुचि व शुध्दता के धरातल पर खड़ा करने की प्रेरणा दी । उन्होने कहा कि हमारी संस्कृति समाज व सृष्टि का ही नही अपितु मानव के मन , बुध्दि , आत्मा और शरीर का समुच्चय है । उनके इसी विचार व दर्शन को “ एकात्म मानववाद ” का नाम दिया गया । जिसे अब एकात्म मानव-दर्शन के रूप में जाना जाता है। एकात्म मानव-दर्शन राष्ट्रत्व के दो पारिभाषित लक्षणों को पुनरर्जीवित करता है, जिन्हे ” चिति ” (राष्ट्र की आत्मा) और ”विराट” (वह शक्ति जो राष्ट्र को ऊर्जा प्रदान करता है) कहते है।

मूल समस्याः स्व के प्रति दुर्लक्ष्य --

आजादी के बाद देश की राजनैतिक दिशा स्पष्ट नही थी क्योकि आजादी के आंदोलन के समय इस विषय पर बहुत ज्यादा चिन्तन नही हुआ था । अंग्रेजी शासन काल में सबका लक्ष्य एक था ” स्वराज ” लाना लेकिन स्वराज के बाद हमारा रूप क्या होगा ? हम किस दिशा में आगे बढे़गे ? इस बात का ज्यादा विचार ही नहीं हुआ। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने 1964 में कहा था कि हमें ” स्व ” का विचार करना आवश्यक है। बिना उसके स्वराज्य का कोई अर्थ नहीं। केवल स्वतन्त्रता ही हमारे विकास और सुख का साधन नहीं बन सकती । जब तक कि हमें अपनी असलियत का पता नहीं होगा तब तक हमें अपनी शक्तियों का ज्ञान नहीं हो सकता और न उनका विकास ही संभव है। परतंत्रता में समाज का ” स्व ” दब जाता है। इसीलिए लोग राष्ट्र के स्वराज्य की कामना करते हैं जिससे वे अपनी प्रकृति और गुणधर्म के अनुसार प्रयत्न करते हुए सुख की अनुभूति कर सकें। प्रकृति बलवती होती है। उसके प्रतिकूल काम करने से अथवा उसकी ओर दुर्लक्ष्य करने से कष्ट होते हैं। प्रकृति का उन्नयन कर उसे संस्कृति बनाया जा सकता है,पर उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। आधुनिक मनोविज्ञान बताता है कि किस प्रकार मानव-प्रकृति एवं भावों    की अवहेलना से व्यक्ति के जीवन में अनेक रोग पैदा हो जाते हैं। ऐसा व्यक्ति प्रायः उदासीन एवं अनमना रहता है। उसकी कर्म-शक्ति क्षीण हो जाती है अथवा विकृत होकर विपथगामिनी बन जाती है। व्यक्ति के समान राष्ट्र भी प्रकृति के प्रतिकूल चलने पर अनेक व्यथाओं का शिकार बनता है। आज भारत की अनेक समस्याओं का यही कारण है।

नैतिक पतन एवं अवसरवादिता --

राष्ट्र का मार्गदर्शन करने वाले तथा राजनीति के क्षेत्र में काम करने वाले अधिकांश व्यक्ति इस प्रश्न की ओर उदासीन है। फलतः भारत की राजनीति,अवसरवादी एवं सिद्धांत  हीन व्यक्तियों का अखाड़ा बन गई है। राजनीतिज्ञों तथा राजनीतिक दलो के न कोई  सिद्धांत  एवं आदर्श हैं और न कोई आचार-संहिता। एक दल छोड़कर दूसरे दल में जाने में व्यक्ति को कोई संकोच नहीं होता। दलों के विघटन अथवा विभिन्न दलों में गठबंधन किसी तात्विक मतभेद अथवा समानता के आधार पर नहीं अपितु उसके मूल में चुनाव और पद ही प्रमुख  रूप से रहते हैं। अब राजनीतिक क्षेत्र में पूर्ण स्वेच्छाचारिता है। इसी का परिणाम है कि आज भी सभी के विषय में जनता के मन में समान रूप से अनास्था है। ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं कि जिसकी आचरणहीनता के विषय में कुछ कहा जाए तो जनता विश्वास न करे। इस स्थिति को बदलना होगा। बिना उसके समाज में व्यवस्था और एकता स्थापित नहीं की जा सकती।

भारतीय संस्कृति एकात्मवादी --

राष्ट्रीय दृष्टि से तो हमें अपनी संस्कृति का विचार करना ही होगा, क्योंकि वह हमारी अपनी प्रकृति है। स्वराज्य का स्व -संस्कृति से घनिष्ठ सम्बंध रहता है। संस्कृति का विचार न रहा तो स्वराज की लड़ाई स्वार्थी व पदलोलुप लोगों की एक राजनीतिक लड़ाई मात्र रह जायेगी। स्वराज्य तभी साकार और सार्थक होगा जब वह अपनी संस्कृति की अभिव्यक्ति का साधन बन सकेगा। इस अभिव्यक्ति में हमारा विकास भी होगा और हमें आनंद की अनुभूति भी होगी। अतः राष्ट्रीय और मानवीय दृष्टियों से आवश्यक हो गया है कि हम भारतीय संस्कृति के तत्वों का विचार करें। भारतीय संस्कृति की पहली विशेषता यह है कि वह सम्पूर्ण जीवन का, सम्पूर्ण सृष्टि का, संकलित विचार करती है। उसका दृष्टिकोण एकात्मवादी है। टुकड़ों-टुकड़ों में विचार करना विशेषज्ञ की दृष्टि से ठीक हो सकता है, परंतु व्यावहारिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं।

परस्पर संघर्ष-विकृति का घोतक --

विविधता में एकता अथवा एकता का विविध रूपों में व्यक्तीकरण ही भारतीय संस्कृति का केन्द्रस्थ विचार है। यदि इस तथ्य को हमने हृदयंगम कर लिया तो फिर विभिन्न सत्ताओं के बीच संघर्ष नहीं रहेगा। यदि संघर्ष है तो वह प्रकृति का अथवा संस्कृति का  घोतक   नहीं, विकृति का  घोतक   है। अर्थात् जिस मत्स्य-न्याय या जीवन संघर्ष को पश्चिम के लोगों ने ढूढकर निकाला उसका ज्ञान हमारे दार्शनिकों को था। मानव जीवन में काम, क्रोध आदि षड़विकारों को भी हमने स्वीकार किया है । किन्तु इन सब प्रवृत्तियों को अपनी संस्कृति अथवा शिष्ट व्यवहार का आधार नहीं बनाया। समाज में चोर और डाकू भी होते हैं। उनसे अपनी और समाज की रक्षा भी करनी चाहिए। किन्तु उनको हम अनुकरणीय अथवा मानव व्यवहार की आधारभूत प्रवृत्तियों का प्रतिनिधि मानकर नहीं चल सकते। जिसकी लाठी उसकी भैंस जंगल का कानून है। मानव की सभ्यता का विकास इस कानून को मानकर नहीं बल्कि यह कानून न चल पाये इस व्यवस्था के कारण ही हुआ है। आगे भी यदि बढ़ना हो तो हमें इस इतिहास को ध्यान में रखकर ही चलना होगा।

व्यक्ति के सुख का विचार --

सम्पूर्ण समाज या सृष्टि का ही नहीं,व्यक्ति का भी हमने एकात्म एवं संकलित विचार किया है। सामान्यतः व्यक्ति का विचार उसके शरीर मात्र के साथ किया जाता है। शरीर सुख को ही लोग सुख समझते हैं, किन्तु हम जानते हैं कि मन में चिंता रही तो शरीर सुख नहीं रहता। प्रत्येक व्यक्ति शरीर का सुख चाहता है। किन्तु किसी को जेल में डाल दिया जाय और खूब अच्छा खाने को दिया जाय तो उसे सुख होगा क्या ? आनंद होगा क्या ?
इसी प्रकार बुद्धि    का भी सुख है। इसके सुख का भी विचार करना पड़ता है। क्योंकि यदि मन का सुख हुआ भी और आपको बड़े प्रेम से रखा भी तथा आपको खाने-पीने को भी खूब दिया, परंतु यदि दिमाग में कोई उलझन बैठी रही तो वैसी हालत होती है जैसे पागल की हो जाती है। पागल क्या होता है ? उसे खाने को खूब मिलता है, हष्टपुष्ट भी हो जाता है, बाकी भी सुविधाए होती हैं। परंतु दिमाग की उलझनों के कारण बुद्धि  का सुख प्राप्त नहीं होता। बुद्धि में  तो शांति चाहिए। इन बातों का हमें विचार करना पडे़गा।

मानव की राजनीतिक आकांक्षा व तृप्ति --

मनुष्य मन, बुद्धि , आत्मा तथा शरीर , इन चारों का समुच्चय है। हम उसको टुकड़ों में  बॉंट करके विचार नहीं करते। आज पश्चिम में जो तकलीफें पैदा हुई हैं उनका कारण यह है कि उन्होंने मनुष्य के एक-एक हिस्से का विचार किया। प्रजातंत्र का आन्दोलन चला तो उन्होंने मनुष्य को कहा कि ” मैन इज ए पालिटिकल ऐनिमल ” अर्थात् मनुष्य एक राजनीतिक जीव है और इसलिए इसकी राजनीतिक आकांक्षा की तृप्ति होनी चाहिए। एक राजा बन करके बैठे और बाकी के राजा नहीं हों, ऐसा क्यों ? राजा सबको बनाना चाहिए। इसलिए राजा बनने की आकांक्षा की पूर्ति के लिए उन्होंने सबको वोट देने का अधिकार दे दिया। प्रजातंत्र में यह अधिकार तो मिल गया, परंतु बाकी जो अधिकार थे वे कम हो गए। फिर उन्होने कहा कि वोट देने का तो सबको अधिकार है, परंतु पेट भरे या न भरे ? यदि खाने को नहीं मिला तो ? जब लोगों से कहा गया कि तुम चिन्ता क्यों करते हो ? वोट का अधिकार तो तुम्हें है ही। तुम तो राजा हो। राजा बनकर बैठे रहो। राज तुम्हारा है। तो लोगों ने कहा-बाबा ! इस राज से हमें क्या करना है, अगर हमें खाने को ही नहीं मिल रहा। पेट को रोटी नहीं मिल रही तो हमें यह राज नहीं चाहिए। हमें तो पहले रोटी चाहिए। कार्लमार्क्स  आये और उन्होने कहा-हॉं। रोटी सबसे पहली चीज है। राज तो केवल रोटी वालों का समर्थक होता है। अतः रोटी के लिए लड़ो। उन्होंने मनुष्य को रोटीमय बना दिया। पर जो लोग कार्लमार्क्स  के रास्ते पर चले, वहॉं का अनुभव यह हुआ कि राज तो हाथ से गया ही और रोटी भी नहीं मिली। किन्तु दूसरी ओर अमरीका है। वहॉं रोटी भी हैं, राज भी है, इस पर भी सुख और शान्ति नहीं। जितनी आत्म-हत्याए अमरीका में होती हैं, और जितने लोग वहॉं मानसिक रोगों के शिकार रहते हैं, जितने लोग वहॉं पर टंक्विलाइजर ( Tranquilizers ) खा खा कर सोने का प्रयास करते है उतना दुनिया में और कहीं नहीं होता है। लोग कहते हैं ” यह क्या समस्या खड़ी हो गई है ? रोटी मिल गई, राज मिल गया, पर नींद हराम। अब वे कहते हैं बाबा नींद लाओ। किसी तरीके से नींद लाओ। अब वहॉं नींद बड़ी चीज बन गई है और नींद भी आ गई तो तृष्णा उन्हें परेशान कर रही है।

शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की प्रगति --

विचारकों को लग रहा है कि उनकी जीवन-पद्धति  में कहीं न कहीं कोई मौलिक गलती अवश्य है, जिससे समृध्दी   के बाद भी वे सुखी नहीं। कारण यह है कि मनुष्य का पूर्ण विचार नहीं कर पाए। हमारे यहॉं पर इस बात का पूरा विचार किया गया है। इसलिए हमने कहा है कि मानव की प्रगति का मतलब शरीर, मन, बुद्धि   व आत्मा-इन चारों की प्रगति है। बहुत बार लोग समझते हैं और इस बात का प्रचार भी किया गया है कि भारतीय संस्कृति तो केवल आत्मा का विचार करती है, बाकी के बारे में वह विचार नहीं करती। यह गलत है। आत्मा का विचार जरूर करते हैं, किन्तु यह सत्य नहीं कि हम शरीर, मन और बुद्धि का विचार नहीं करते। अन्य लोगों ने तो केवल शरीर का विचार किया। इसलिए आत्मा का विचार हमारी विशेषता हो गयी। कालान्तर में इस विशेषता ने लोगों में एकान्तिकता का भ्रम पैदा कर दिया। जिसका विवाह नही हुआ वह केवल मॉं को प्रेम करता है, किन्तु विवाह के बाद मॉ और पत्नी दोनों को प्रेम करता है तथा दोनों के प्रति दायित्व को निभाता है। अब इस व्यक्ति से कोई कहे कि उसने मॉं को प्रेम करना छोड़ दिया, तो यह गलत होगा। पत्नी भी, जब तक पुत्र नहीं होता, केवल पति को प्रेम करती है, बाद में पति और पुत्र दोनों को प्रेम करती है। इस अवस्था में कभी-कभी अज्ञानतावश पति पत्नी पर यह आरोप लगा देता है कि वह तो अब उसकी चिन्ता ही नहीं करती। किन्तु यह आरोप सही नहीं होता। यदि सही है तो पत्नी अपने कर्तव्य से विमुख हो गयी है, ऐसा मानना चाहिए। इस प्रकार हमने व्यक्ति के जीवन की पूर्णता के साथ संकलित विचार किया है । उसके शरीर, मन, बुध्दि और आत्मा सभी का विकास करने का उद्देश्य रखा है । उसकी सभी भूखों को मिटाने की व्यवस्था की है । किन्तु यह ध्यान रखा है कि एक भूख को मिटाने के प्रयत्न में दूसरी भूख न पैदा कर दे अथवा दूसरे के मिटाने का मार्ग बंद न कर दे । इस हेतु चारो पुरूषार्थो का संकलित विचार हुआ है । यह पूर्ण मानव की , एकात्म मानव की कल्पना है जो हमारा आराध्य तथा हमारी आराधना का साधन दोनों ही है । इस एकात्म मानव दर्शन को आधार बना कर हम भारत का समग्र विकास कर सकते है।
                                                                                                                                    - -  अशोक बजाज

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भूल कर भी कोई भूल हो ना

आज क्षमा याचना पर्व होने के कारण अनेक मित्रों एवं परिचितों के फोन व एस. एम . एस . आये . सभी ने पर्व की परंपरा का निर्वाह करते हुवे तरह तरह के मैसेज भेजे .


एक मित्र का मैसेज है------ जाने में अनजानें में , अपने वचन सुनाने में ; सुख दुःख के दे जाने में , कोई रस्म निभाने में ; हमारी वाणी से आपको पहुंचा हो कोई गम , तो क्षमा चाहते है हम ;

अन्य मैसेज -- कोशिश पूरे दिल से करता हूँ कि कोई भी व्यवहारिक चूक ना हो पर हे श्रीमान मानव से इस भौतिक युग में भूल ना हो ऐसा असंभव सा प्रतीत होता है ; मन से, वचन से, काया से उत्तम क्षमा .


* भूल एक स्वाभाविक प्रक्रिया है इस भौतिक युग में कोई इससे अछूता नहीं है , मेरे शब्दों से ,मेरे व्यवहार से मेरी काया से ,मेरे मन यदि कभी आपको किसी भी प्रकार की ठेस पहुँची हो तो आपसे हाथ जोड़ कर क्षमा चाहता हूँ .


हम तो पहले से ही क्षमा मांग चुकें है,हमारा सदा यही प्रयास रहता है कि भूल कर भी कोई भूल हो ना .

  इतनी शक्ति हमे देना दाता, मन का विश्वास कमज़ोर हो ना ,
   हम चले नेक रस्ते पे हमसे , भूल कर भी कोई भूल हो ना ;

 दूर अज्ञान के हो अंधेरे, तू हमे ज्ञान की रोशनी दे,
 हर बुराई से बचकर रहे हम,जितनी भी भले ज़िंदगी दे ;
 बैर हो ना किसी का किसी से, भावना मन मे बदले की हो ना,
 हम चले नेक रास्ते पे हम से, भूलकर भी कोई भूल हो ना ;
 इतनी शक्ति हमे दे ना दाता …...........!!

 हम ना सोचे हमे क्या मिला है, हम यह सोचे किया क्या है अर्पण,
 फूल खुशियों के बाँटे सभी को, सब का जीवन ही बन जाए मधुबन ;
 अपनी ममता का जल तू बहाके, कर दे पावन हरेक मन का कोना ,
 हम चले नेक रास्ते पे हम से, भूलकर भी कोई भूल हो ना ;
 इतनी शक्ति हमे देना दाता … ........!!       
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22 सितंबर, 2010

दुनिया का सबसे बड़ा फोटो मेला

जर्मनी के कोलोन शहर में दुनिया का सबसे बड़ा फोटो मेला 'फोटोकीना' आज से शुरू हो गया है. यह मेला छह दिन तक चलेगा. पिछले साल जर्मनी में करीब 85 लाख कैमरे बिके थे.


छह दिन तक चलने वाले फोटोकीना मेले में 45 देशों के 1,250 विक्रेता अलग अलग तरह के कैमरों का प्रदर्शन करेंगे. मेले के आयोजक उम्मीद जता रहे हैं कि इस सप्ताह करीब डेढ़ लाख लोग यह प्रदर्शनी देखने आएंगे.

सोनी, पैनासॉनिक और फूजी जैसी बड़ी कंपनियां इस मेले में हिस्सा ले रही हैं. कॉम्पैक्ट कैमरा और 3-डी स्क्रीन आकर्षण के केंद्र में हैं.आम जनता के लिए यह मेला रोज़ सुबह दस से शाम छह बजे तक खुलेगा और उसके लिए लोगों को एक दिन के 43 यूरो खर्चने होंगे. हालांकि बच्चों, छात्रों और वृद्ध लोगों को छूट दी जाएगी.


हर किसी की पहुंच में है कैमरा

डिजिटल फोटोग्राफी के आने के बाद से कैमरों की लोकप्रियता में बहुत इजाफा हुआ. मोबाइल फोन में कैमरे होने के कारण अब हर कोई अपना फोटोग्राफी का शौक पूरा कर लेता है. जर्मनी की फोटो इंडस्ट्री संगठन के कोंस्टांस क्लाउस का कहना है, "जहां तक खरीदारी की बात है तो कैमरा पांचवे स्थान पर है. सब से पहले है फ्रिज, फिर टीवी, फोन, मोबाइल और उसके बाद कैमरा."

वक्त के साथ साथ कैमरे की मांग बहुत बढ़ी है. क्लाउस का कहना है कि एक समय हुआ करता था जब परिवार के सबसे बड़े व्यक्ति के पास ही कैमरा हुआ करता था. लेकिन अब परिवार का हर सदस्य अपने पास कैमरा रखना चाहता है. हर कोई अपनी यादों को अपने तरीके से कैमरे में कैद करना चाहता है.



डिजिटल फोटोग्राफी ने सब कुछ बदला. न रहा रील बदलने का झंझट और न ही उस पर पैसे खर्च करने की चिंता. लोग जब चाहें, जहां चाहें तस्वीरे ले सकते हैं. जर्मनी में जब यहां के युवाओं से यह पूछा गया कि वे अपनी प्रियजनों को चिट्ठी, ई-मेल और तस्वीरों में से क्या भेजना पसंद करेंगे, तो 78 फीसदी ने जवाब दिया कि वे तस्वीर भेजना ही ज्यादा पसंद करेंगे. साथ ही क्लाउस का यह भी मानना है कि इंटरनेट में सोशल नेटवर्किंग भी तस्वीरों के ही सहारे इतनी लोकप्रिय हो पाई हैं.

कम हुआ जनता और मीडिया का फासला

डिजिटल फोटोग्राफी के ज़रिये आम जनता और मीडिया के बीच का फासला भी बहुत कम हुआ है. जर्मनी के लोकप्रिय अखबार "बिल्ड" के सम्पादक मिशाएल पाउसटियान का कहना है कि आज के समय में उनके लिए उनके पाठकों द्वारा भेजी गई तस्वीरों की उतनी ही अहमियत है जितनी उनके फोटोग्राफर द्वारा ली गई तस्वीरों की है. पाउसटियान का बताना है कि उन्हें पाठकों द्वारा प्रति दिन 4000 तसवीरें मिलती हैं. वैसे यह भी ध्यान देने लायक बात है कि जर्मन में बिल्ड का मतलब होता है तस्वीर.


जनता द्वारा ली गई इन तस्वीरों से कई बार मीडिया के साथ साथ पुलिस को भी फायदा होता है. कुछ हफ़्तों पहले हुए जर्मनी के डुइसबुर्ग शहर में लव परेड के दौरान हुए हादसे की तहकीकात करने वाले पुलिस के अधिकारी रामौन फान डेअर माट भी इस बात को मानते हैं कि मोबाइल फोन से ली गईं तस्वीरें पुलिस की तहकीकात के लिए बेहद मददगार साबित होती हैं.

यह कैमरों का युग है

आज के ज़माने में कितने छोटे छोटे कैमरे बाज़ार में  आ गएँ है , पता करना मुश्किल है कि किसके हाथ में कैमरा है . मोबाईल  सेट में कैमरा होने से अब क्या बच्चे क्या बूढ़े सभी के हाथ में कैमरा आ गया है . छोटे छोटे ख़ुफ़िया कैमरे भी आज आसानी से इस्तेमाल किये जा सकते है . 






 एक वो भी जमाना था
एक वो  भी  जमाना था जब  कैमरा  कुछ  खास लोगों एवंरईसजादो तक सीमित था 
फोटोग्राफी का  शौंक महंगा साबित होता था .कैमरे  को आपरेट करना बड़ा कठिन होता था .   

                     

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21 सितंबर, 2010

अधूरी लगी महंगाई डायन


हमें" पिपली  लाइव" फिल्म देखनें का अवसर मिला ,शायद आप भी देख चुके होंगें.मै नहीं जानता  कि यह फिल्म आपको कैसी लगी लेकिन मुझे तो यह अधूरी अधूरी सी लगी .लगता है इस फिल्म पर सेंसर बोर्ड की डबल कैची चली है ,मै यह बात इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि इस फिल्म का प्रचलित लोकप्रिय गीत "महंगाई डायन खाय जात है ....... " आधा गायब है . वैसे यह गीत 4.58मिनट का है लेकिन फिल्म में मात्र दो-ढाई मिनट दिखाया गया .इस गीत से पहले महंगाई पर कोई प्रसंग भी नहीं आया,लगता है वह भी सेंसर बोर्ड की बलि चढ़ गया .

बुधिया और नत्था का परिवार

इसी प्रकार फिल्म में यह स्पस्ट नहीं किया गया कि बुधिया और नत्था पर कर्ज का बोझ अकाल के कारण पड़ा या खुद की बदइन्तजामी के कारण .यह भी हो सकता है कि उसके कर्ज के लिए सरकार की कोई नीति जिम्मेदार हो . कृषि उपज के लिए उपयुक्त बाजार नहीं मिलना या उसका सही मूल्य नहीं मिलना भी कारण हो सकता था .उपरोक्त में से किसी  एक या एक से अधिक  कारणों को स्पस्ट करने से शायद फिल्म और जानदार बन सकती थी ,हो सकता है यह प्रसंग फिल्माया ही ना गया हो अथवा सेंसर बोर्ड ने वह अंश काट दिया हो.हाँ एक बार नत्था की पत्नी द्वारा अपनी बूढी सास को यह कहते हुए आपने जरूर  सुना  होगा कि तुम्हारी बीमारी की वजह से ही तो यह कर्ज चढ़ा है . बात इतने से तो बनती नहीं कि भारत के किसानों की दुर्दशा के लिए घर की बुजुर्ग महिला पर सारा दोष मढ़ दिया जाय .फिल्म में नत्था की पत्नी का अपने जेठ के प्रति व्यवहार भी समझ से परे है .फिल्म में इलेक्ट्रानिक मिडिया का खूब उपहास उड़ाया गया है ,  जिसका दर्शकों ने  खूब आनंद लिया .

यह है सरकार द्वारा प्रदत्त  लालबहादूर

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