भादो म बरसबे, सावन असन
(छत्तीसगढ़ी कविता)
चल दिस सावन,
पर ते जाबे झन;
सुक्खा हे धरती ,
ते रिसाबे झन;
सुक्खा हे धरती ,
ते रिसाबे झन;
भादो म बरसबे ,
सावन असन;
चुचुवावत हे पसीना,
फीजे हे बदन;
सावन असन;
चुचुवावत हे पसीना,
फीजे हे बदन;
भविष्य के चिंता म,
बूड़े हे मन ;
भादो म बरसबे ,
सावन असन;
सावन असन;
रदरद ले गिरबे ,
गरजबे झन ;
भर जाय तरिया ,
फीज जाय तन;
भादो म बरसबे ,
सावन असन;
आजा ते आजा ,
अगोरत हवन ;
खेत खार ला भरदे ,
करत हन मनन;
भादो म बरसबे,
सावन असन;
गरजबे झन ;
भर जाय तरिया ,
फीज जाय तन;
भादो म बरसबे ,
सावन असन;
आजा ते आजा ,
अगोरत हवन ;
खेत खार ला भरदे ,
करत हन मनन;
भादो म बरसबे,
सावन असन;
- अशोक बजाज
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