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25 अक्तूबर, 2010

रविवार को बदल जाएगा वक्त


           अक्तूबर इस साल का सबसे लंबा महीना होगा. इसी महीने दुनिया के बहुत सारे देश अपनी अपनी घड़ियां एक घंटा पीछे करेंगे.हर साल अक्टूबर के आखिरी रविवार को समय पीछे होता है और मार्च में फिर से घड़ियां घंटे भर आगे कर दी जाती हैं.
         रूस में स्टेट मेट्रोलॉजी सेंटर के विशेषज्ञ बताते हैं कि साल में दो बार घड़ियों को आगे पीछे किया जाता है. विशेषज्ञों के मुताबिक,  "बसंत की शुरुआत में घड़ियां एक घंटा आगे की जाती हैं और पतझड़ में एक घंटा पीछे. आमतौर पर ऐसा मार्च और अक्तूबर के आखिरी रविवार को किया जाता है."
         यह तरीका स्कॉटलैंड में पैदा हुए कनाडा के एक इंजीनियर सैनफोर्ड फ्लेमिंग ने ईजाद किया था. फ्लेमिंग ने दुनिया को टाइम जोन में बांटने का प्रस्ताव दिया. 1883 में उनके इस प्रस्ताव को अमेरिका का समर्थन मिला. 1884 में वॉशिंगटन डीसी में एक समझौता हुआ जिसके तहत 26 देशों ने टाइम जोन को मान लिया.
         टाइम जोन दरअसल धरती के क्षेत्र हैं जहां एक जैसा वक्त रहता है. फ्लेमिंग के प्रस्तावों को मंजूरी मिलने के बाद हर टाइम जोन का अपना वक्त हो गया. इसे स्थानीय समय कहा जाता है.
        मौसम के हिसाब से इन टाइम जोन में बदलाव किया जाता है. दिन में रोशनी के मुताबिक वक्त को एक घंटा आगे या पीछे कर लिया जाता है. इस प्रक्रिया को डे लाइट सेविंग टाइम या समर टाइम जोन कहते हैं. यह प्रस्ताव अमेरिकी विचारक बेंजामिन फ्रैंकलिन ने दिया था.
      अब टाइम जोन समझौते के मुताबिक 192 में से 110 देश साल में दो बार अपनी घड़ियां आगे या पीछे करते हैं.DW  

"बचपन और हमारा पर्यावरण"

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अब खुलेंगे ब्रह्मांड के दरवाजे


            ब्रह्मांड में कहीं छिपी हुई एक अनजानी दुनिया, जिसका अभी तक पता नहीं है. ये अब तक साइंस फिक्शन लिखने वालों के काम की चीजें रही हैं. लेकिन वैज्ञानिकों को उम्मीद हैं कि अगले साल तक इस सिलसिले में ठोस धारणाएं पेश करेंगे.
यही है महाट्यूब
     परमाणु अनुसंधान के लिए यूरोपीय संगठन, फ्रांसीसी अक्षरों के मुताबिक इसे सैर्न कहा जाता है. फ्रांस और स्विट्जरलैंड की सीमा पर जूरा पहाड़ियों की घाटी में इसके केंद्र में सैकड़ों वैज्ञानिक काम कर रहे हैं. यहां 10 अरब डॉलर की लागत से एक प्रयोग शुरू किया गया था, जिसे लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर या एलएचसी कहा जाता है. भौतिक शास्त्रियों की भाषा में यह न्यू फिजिक्स का प्रयोग है, जिसके आधार पर ब्रह्मांड के बारे में अब तक प्रचलित मान्यताएं पूरी तरह से बदलनी पड़ेंगी.
       आम बोलचाल की भाषा में इसे महाप्रयोग का नाम दिया गया है. सैर्न के वैज्ञानिकों का कहना है कि समानांतर दुनिया, पदार्थ के अज्ञात रूप, अतिरिक्त आयाम - ये अब साइंस फिक्शन के विषय नहीं रह जाएंगे, बल्कि फिजिक्स के ठोस सिद्धांत बनेंगे, जिन्हें एलएचसी और इस तरह के अन्य प्रयोगों के जरिये प्रमाणित किया जाएगा.
ब्रह्मांड की खोज
       अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं के इस तथाकथित थ्योरी ग्रुप में इस बात पर विचार किया जा रहा है कि टेलिस्कोप की पहुंच के बाहर क्या क्या हो सकता है, जैसा कि सैर्न के इस महीने के बुलेटिन में कहा गया है. बुलेटिन के एक लेख में बताया गया है कि एलएचसी की भूमिगत प्रयोगशाला में लगातार बढ़ाई जा रही ऊर्जा के साथ कणों के बीच टकराव की स्थिति पैदा की जा रही है,  जैसा कि ब्रह्मांड में हुआ करता है.  इनके नतीजों को कंप्यूटर के जरिये परखा जाएगा.
        केंद्र के महानिदेशक रोल्फ हॉयर ने पिछले सप्ताहांत बताया कि जमीन के नीचे 27  किलोमीटर लंबी सुरंग में अक्टूबर के मध्य में प्रोटोन के कण 50 लाख प्रति सेकंड की दर से आपस में टकराए जा रहे हैं.  यह योजना से दो सप्ताह पहले संपन्न हुआ है. और अगले साल घर्षण की गति अब तक अज्ञात आयाम तक बढ़ाई जाएगी, और उनसे प्राप्त हो सकने वाली सूचनाएं वैज्ञानिकों की अब तक की सारी धारणाओं को बदल सकती हैं. सिर्फ़ प्रकाश की गति इस घर्षण की गति से अधिक है.  इनके जरिये उसका एक नमूना तैयार किया जाएगा, आज से लगभग 13.7 अरब वर्ष पहले बिग बैंग के बाद एक सेकंड के एक छोटे से हिस्से में जो कुछ हुआ था.
         सदियों के निरीक्षण और प्रयोग के बाद भी अभी तक ब्रह्मांड के लगभग 4 प्रतिशत के बारे में ही कुछ जानकारी मिल सकी है. उसके बाहर जो कुछ है, उसे डार्क मैटर या डार्क एनर्जी कहा जाता है, क्योंकि वह पूरी तरह से अज्ञात है.
          सैर्न के वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि इन महाप्रयोगों के नतीजे के रूप में उन्हें ऐसे आयामों के संकेत मिलेंगे, जो लंबाई, चौड़ाई, गहराई और समय से परे होंगे, क्योंकि उर्जा के कणों को इन चारों आयामों से परे तक गायब होते पाया जाएगा और वे फिर से इन चार आयामों की परिधि में लौट आएंगे. DW 00344