रंग लगते ही खिल उठे चहरे |
होली उमंग और जोश का पर्व है . हम अपने उमंग और जोश का ईजहार रंग व गुलाल
से करते है. यह जानते हुए भी कि बाजार में मिलने वाले अधिकांश रंगों में
केमिकल का इस्तेमाल किया जाता है जो शरीर के लिए नुकसानदेह है हम रंग खेलने
से नहीं चूकते. डाक्टर या प्रबुद्ध-जन चाहे कितना भी मना करे रंग से एक
दूसरे को सराबोर करने का सिलसिला बरसों से चला आ रहा है . होली खेलने के
लिए धूल, कीचड़,वार्निस और आईल पेंट का भी इस्तेमाल किया जाता है. बहरहाल
होली खेलने के सबके अपने अपने ढंग है लेकिन क्या किसी ने सोचा है कि हमारे
समाज में ऐसे अनगिनत लोग भी है जिन्होंने कभी रंग को देखा भी नहीं क्योंकिं
रंगों को देखने के लिए उनकी आँखें नहीं है . जब सब लोग होली खेलते है तो
इनकी भी होली खेलने की इच्छा होती है . खेलना चाहते है पर खेल नहीं सकते ,
कोई इन्हें रंग से भरी पिचकारी थमा दे तो ये निशाना नहीं साध पाते . कोई
इन्हें गुलाल थमा दे तो सामने वाले के शरीर तक पहुँच नहीं पाते . दूसरों
को होली खेलते ,हंसी ठिठोली करते सुनते होंगें तो इन्हें बड़ी ग्लानी होती
होगी. सोचते होंगें काश हमारी भी ऑंखें होती तो हम भी देख पाते कि रंग कैसा होता
है . लाल रंग कैसा होता है ,पीला रंग कितना प्यारा लगता है , हरे रंग में
कितना तरंग होता है और केसरिया कितना सुहावना होता है आदि आदि . आँखें नहीं
होने से मन मसोज कर अपने भाग्य को कोसते होंगें .
मन की आँखों से ढूंढ लिया ललाट |
इस बार की होली में ऐसे ही नेत्रहीन बच्चों से सामूहिक मुलाकात हो गई . रायपुर की " परिमल प्रयास " नामक संस्था ने इस वर्ष नेत्रहीन बच्चों को इकठ्ठा कर होली मिलन का कार्यक्रम बनाया जिसमें लगभग 200 नेत्रहीन बच्चे शामिल हुए ,इसमे कुछ बड़े बुढ़ें भी थे . नेत्रहीनों ने मन की आँखों से रंगों को देखने का प्रयास किया और आपस में खूब होली खेली . सामूहिक रूप से होली के ना केवल गाने गए बल्कि गाकर खूब झूम भी. बड़ा भावविभोर करने वाला दृश्य था. नेत्रहीन बच्चे मन की आँखों से रंगों का एहसास कर रहे थे. मनुष्य का तीसरा नेत्र भी होता है यह सुना तो था लेकिन पहली बार तीसरे नेत्र का इस्तेमाल करते हुए देख रहा था .
" परिमल प्रयास " ने होली के पावन पर्व पर प्रकृति की मार झेल रहे इन अभागों के दिल में उमंग और जोश के भरने का सराहनीय कार्य किया है . इससे समाज के अन्य लोंगों का ऑंखें अवश्य खुलेगीं .