भारतीय संस्कृति का उद्देश्य मानव जीवन को सुखी व समृद्ध बनाना है। हमारी संस्कृति कहती है कि हम परस्पर सहयोग व समन्वय से अपना जीवन यापन करें। मनुष्य के ऊपर अपने परिवार व समाज को पोषित करने की महती जिम्मेदारी होती है। इसके लिए वह नाना प्रकार के आर्थिक उपक्रम करता है। दूसरों का अनहित किये बिना अपना हित करना हमारी जीवन पद्धति है। इसी जीवन पद्धति के तहत ‘‘एक के लिए सब और सब के लिए एक’’ की भावना विकसित हुई। यह हमारी सनातन जीवन पद्धति है जो हमें विरासत में मिली है। इसी को सहकारिता का नाम दिया गया है। जब हम सहिष्णुता, समभाव और समन्वय की बात करते हैं तो उसका अर्थ सहकारिता ही होता है। सहकारिता की भावना हमें मिलजुल कर काम करने की प्रेरणा देती है।
भारत के संदंर्भ में अगर हम बात करे तो यहां अमीरी और गरीबी की खाई दिनों दिन गहरी होती जा रही है। एक ओर जहां बहुसंख्यक लोग गरीबी, बेकारी एवं भूखमरी से जुझ रहें है, उन्हें रोटी कपड़ा और मकान नसीब नहीं हो रहा है तो दूसरी ओर समाज में ऐसे भी लोग हैं जिनके पास बेशुमार धन सम्पदा है। एक तरफ भूखमरी का आलम है जहां दो जून भरपेट भोजन के लाले पड़े है तो दूसरी ओर ऐसे लोग भी है जो खा खा के अस्पताल की शोभा बढ़ा रहें है अथवा मौत के गाल में समा रहें है। धनोपार्जन करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है क्योंकि उसे अपनी असीमित आवश्यकताओं को सीमित साधनों से पूरा करना है। इस परिपेक्ष्य में महान विचारक पं. दीनदयाल उपाध्याय ने कहा है ‘‘अर्थोपार्जन प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य होता है, परन्तु अर्थ के प्रति आसक्ति दुर्गुण ही कहा जाना चाहिए। सम्पत्ति की लालसा लिए हृदय देश, धर्म, समाज और संस्कृति से उदासीन हो जाता है। इस दुर्गुण से ग्रस्त व्यक्ति विवेकहीन और असमाजिक होता है। इससे उस व्यक्ति को तो कष्ट उठाने ही पड़ते हैं, साथ ही साथ समाज भी प्रभावित होता है। ऐसा व्यक्ति अर्थ को साधन नहीं, केवल साध्य समझने लगता है। चूंकि सम्पत्ति से प्राप्त विषय भोगों की कोई सीमा नहीं होती इसलिए ऐसे व्यक्ति के साथ-साथ समाज के भी भ्रष्ट और अकर्मण्य होने की आशंका रहती है।‘‘
देश में एक दूसरा बड़ा तबका ऐसा भी है जिसकी कमाई सीमित है अपनी दैनंदिनी की आवश्यकता की आपूर्ति उसके लिए कठिन और दुष्कर कार्य है। यह तबका आर्थिक रूप से काफी पिछड़ा हुआ है। इन्हें अपनी आजीविका के लिए दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है। ये तबका परस्पर सहयोग व समन्वय से अपनी आर्थिक गतिविघियों का संचालन करते हैं तथा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते है।
अंग्रेजों के शासनकाल में इस वर्ग का काफी आर्थिक शोषण हुआ। इन्हें ना ही अपने श्रम का उचित मूल्य मिलता था और ना ही सम्मानजनक जीवन जीने का अवसर। अतः ये जमींदारों व साहूकारों के चंगुल में फंस गये और गरीबी, बेकारी, व भुखमरी के शिकार होने लगे। उन्हें अपने जीवन यापन के लिए बंधुवा मजदूर बनना पड़ा। अमीरी व गरीबी की खाई के साये में आजाद भारत का जन्म हुआ लेकिन दिशाहीनता के कारण यह समस्या नासूर बन गई तब पं. दीनद्याल उपाध्याय ने असमानता की खाई को पाटने के लिए अन्त्योदय के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। उन्होंने कहा कि ‘‘हमारी भावना और सिद्धांत है कि वह मैले कुचैले, अनपढ़ लोग हमारे नारायण है. हमें इनकी पूजा करनी है, यह हमारा सामाजिक व मानव धर्म है. जिस दिन हम इनको पक्के सुन्दर, स्वच्छ घर बना कर देंगें, जिस दिन इनकें बच्चों और स्त्रियों को शिक्षा और जीवन दर्शन का ज्ञान देंगें, जिस दिन हम इनके हाथ और पांव की बिवाइयों को भरेंगें और जिस दिन इनको उद्योगों और धंधों की शिक्षा देकर इनकी आय को ऊंचा उठा देंगे, उस दिन हमारा भातृ भाव व्यक्त होगा.’’
पं. उपाध्याय ने अपने अन्त्योदय सिद्धांत में कहा कि आर्थिक असमानता की खाई को पाटने के लिए आवश्यक है कि हमें आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के उत्थान की चिन्ता करनी चाहिए क्योंकि अर्थ का अभाव और अर्थ का प्रभाव दोनों समाज के लिए घातक है। हमारी नीतियां, योजनाएं व आर्थिक कार्यक्रम कमजोर लोगों को ऊपर लाने की होनी चाहिए ताकि वे भी समाज की मुख्यधारा से जुड़ सके। उन्हें भी समाज के अन्य वर्ग के साथ बराबरी से खड़े होने का अवसर मिले। उन्होंने जिस जीवन शैली की जिक्र किया है वह सहकारिता ही है। सहकारिता की भावना तब कम होती है जब हमारी प्रवृति में नकारात्मक बदलाव आता है। काल परिस्थिति के कारण हमारी प्रवृति में नकारात्मक बदलाव समाज के लिए घातक होता है।
बहरहाल पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के परिणाम स्वरूप उत्पन्न अर्थिक विषमता को खत्म करने का एकमात्र माध्यम सहकारिता ही हो सकता है। यह समाज के गरीब व कमजोर वर्ग के लोगों को सम्मानजनक जीवन प्रदान करता है। यह परतंत्रता से स्वतंत्रता, विषमता से समानता तथा विपन्नता से सम्पन्नता के मार्ग में ले जाने का प्रभावी माध्यम है। इसमें परस्पर सहयोग व समन्वय की भावना होती है।
पं. दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानव दर्शन हमें सहकारिता की भावना को विकसित करने की प्रेरणा देता है। समाज में मिलजुल कर काम करने की प्रवृति को विकसित करके हम कमजोर वर्ग के लोगों को आर्थिक रूप से स्वावलंबी बना सकते है।
भारत के संदंर्भ में अगर हम बात करे तो यहां अमीरी और गरीबी की खाई दिनों दिन गहरी होती जा रही है। एक ओर जहां बहुसंख्यक लोग गरीबी, बेकारी एवं भूखमरी से जुझ रहें है, उन्हें रोटी कपड़ा और मकान नसीब नहीं हो रहा है तो दूसरी ओर समाज में ऐसे भी लोग हैं जिनके पास बेशुमार धन सम्पदा है। एक तरफ भूखमरी का आलम है जहां दो जून भरपेट भोजन के लाले पड़े है तो दूसरी ओर ऐसे लोग भी है जो खा खा के अस्पताल की शोभा बढ़ा रहें है अथवा मौत के गाल में समा रहें है। धनोपार्जन करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है क्योंकि उसे अपनी असीमित आवश्यकताओं को सीमित साधनों से पूरा करना है। इस परिपेक्ष्य में महान विचारक पं. दीनदयाल उपाध्याय ने कहा है ‘‘अर्थोपार्जन प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य होता है, परन्तु अर्थ के प्रति आसक्ति दुर्गुण ही कहा जाना चाहिए। सम्पत्ति की लालसा लिए हृदय देश, धर्म, समाज और संस्कृति से उदासीन हो जाता है। इस दुर्गुण से ग्रस्त व्यक्ति विवेकहीन और असमाजिक होता है। इससे उस व्यक्ति को तो कष्ट उठाने ही पड़ते हैं, साथ ही साथ समाज भी प्रभावित होता है। ऐसा व्यक्ति अर्थ को साधन नहीं, केवल साध्य समझने लगता है। चूंकि सम्पत्ति से प्राप्त विषय भोगों की कोई सीमा नहीं होती इसलिए ऐसे व्यक्ति के साथ-साथ समाज के भी भ्रष्ट और अकर्मण्य होने की आशंका रहती है।‘‘
देश में एक दूसरा बड़ा तबका ऐसा भी है जिसकी कमाई सीमित है अपनी दैनंदिनी की आवश्यकता की आपूर्ति उसके लिए कठिन और दुष्कर कार्य है। यह तबका आर्थिक रूप से काफी पिछड़ा हुआ है। इन्हें अपनी आजीविका के लिए दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है। ये तबका परस्पर सहयोग व समन्वय से अपनी आर्थिक गतिविघियों का संचालन करते हैं तथा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते है।
अंग्रेजों के शासनकाल में इस वर्ग का काफी आर्थिक शोषण हुआ। इन्हें ना ही अपने श्रम का उचित मूल्य मिलता था और ना ही सम्मानजनक जीवन जीने का अवसर। अतः ये जमींदारों व साहूकारों के चंगुल में फंस गये और गरीबी, बेकारी, व भुखमरी के शिकार होने लगे। उन्हें अपने जीवन यापन के लिए बंधुवा मजदूर बनना पड़ा। अमीरी व गरीबी की खाई के साये में आजाद भारत का जन्म हुआ लेकिन दिशाहीनता के कारण यह समस्या नासूर बन गई तब पं. दीनद्याल उपाध्याय ने असमानता की खाई को पाटने के लिए अन्त्योदय के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। उन्होंने कहा कि ‘‘हमारी भावना और सिद्धांत है कि वह मैले कुचैले, अनपढ़ लोग हमारे नारायण है. हमें इनकी पूजा करनी है, यह हमारा सामाजिक व मानव धर्म है. जिस दिन हम इनको पक्के सुन्दर, स्वच्छ घर बना कर देंगें, जिस दिन इनकें बच्चों और स्त्रियों को शिक्षा और जीवन दर्शन का ज्ञान देंगें, जिस दिन हम इनके हाथ और पांव की बिवाइयों को भरेंगें और जिस दिन इनको उद्योगों और धंधों की शिक्षा देकर इनकी आय को ऊंचा उठा देंगे, उस दिन हमारा भातृ भाव व्यक्त होगा.’’
पं. उपाध्याय ने अपने अन्त्योदय सिद्धांत में कहा कि आर्थिक असमानता की खाई को पाटने के लिए आवश्यक है कि हमें आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के उत्थान की चिन्ता करनी चाहिए क्योंकि अर्थ का अभाव और अर्थ का प्रभाव दोनों समाज के लिए घातक है। हमारी नीतियां, योजनाएं व आर्थिक कार्यक्रम कमजोर लोगों को ऊपर लाने की होनी चाहिए ताकि वे भी समाज की मुख्यधारा से जुड़ सके। उन्हें भी समाज के अन्य वर्ग के साथ बराबरी से खड़े होने का अवसर मिले। उन्होंने जिस जीवन शैली की जिक्र किया है वह सहकारिता ही है। सहकारिता की भावना तब कम होती है जब हमारी प्रवृति में नकारात्मक बदलाव आता है। काल परिस्थिति के कारण हमारी प्रवृति में नकारात्मक बदलाव समाज के लिए घातक होता है।
बहरहाल पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के परिणाम स्वरूप उत्पन्न अर्थिक विषमता को खत्म करने का एकमात्र माध्यम सहकारिता ही हो सकता है। यह समाज के गरीब व कमजोर वर्ग के लोगों को सम्मानजनक जीवन प्रदान करता है। यह परतंत्रता से स्वतंत्रता, विषमता से समानता तथा विपन्नता से सम्पन्नता के मार्ग में ले जाने का प्रभावी माध्यम है। इसमें परस्पर सहयोग व समन्वय की भावना होती है।
पं. दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानव दर्शन हमें सहकारिता की भावना को विकसित करने की प्रेरणा देता है। समाज में मिलजुल कर काम करने की प्रवृति को विकसित करके हम कमजोर वर्ग के लोगों को आर्थिक रूप से स्वावलंबी बना सकते है।
अशोक बजाज
अध्यक्ष
भाजपा सहकारिता प्रकोष्ट
छ.ग. रायपुर