भारी ट्रैफिक के बीच भी कार चलेगी बिना ड्राइवर के, सेलफोन में होगी ऐसी आंख जो देखेगी इंसान की तरह, फेसबुक खुद ही दोस्तों से हालचाल पूछेगा और उनके सवालों के जवाब भी देगा. ये आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का कमाल है.
दो दशक पहले तक नामुमकिन लगने वाली चीजों को बच्चों का खेल बना देने वाले आज के विज्ञान के पिटारे में कुछ साल बाद हमें देने के लिए ये नई सौगातें होंगी. ये सब कुछ मुमकिन होगा आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की बदौलत जो हमारी जिंदगी में घुसने को बेताब है. वैज्ञानिक उस फॉर्मूले को तैयार करने में जुटे हैं जो मशीनों के भीतर इंसानी दिमाग फिट कर सकेगा. फिर इन मशीनें को चलाने के लिए इंसान की जरूरत नहीं होगी यानी पटरियों पर दौड़ती ट्रेन के इंजन में कोई ड्राइवर नहीं होगा ना ही सड़क पर दौड़ती टैक्सी में. इतना ही नहीं नई तकनीक हमारी रोजमर्रा की जिंदगी और पर्यावरण से जुड़ी कई मुश्किलें भी हल कर देगा. आखिर ये आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस है क्या ? आईआईटी दिल्ली के कंप्यूटर साइंस विभाग में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की प्रोफेसर सरोज कौशिक ने बताया," आर्टिफिसियल मूल रूप से इंसान की बुद्धि को कंप्यूटर के भीतर डालने की तकनीक को कहते हैं.इसमें मुख्य रूप से इस बात पर जोर होता है कि ऐसे कंप्यूटर बनाएं जाएं जो इंसान की तरह सोच सके, इंसान की तरह काम कर सकें और वो भी तार्किक तरीके से. कुछ तय नियमों के आधार पर नई जानकारी हासिल कर सकें और चूंकि ये कृत्रिम तरीके से होता है इसलिए इसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस कहते हैं."
कुछ दिन पहले गूगल ने एक ऐसा ही दिमाग बनाया और उसके सहारे कैलिफोर्निया में करीब सवा दो लाख किलोमीटर तक कार चलाई. नेविगेशन सिस्टम और सेंसर से लैस इस कार में कैमरे भी लगाए गए थे. कार ट्रैफिक की भीड़ भाड़ से आसानी से निकली और हाईवे पर भी उसने खूब फर्राटा भरा, ट्रैफिक की लाइटों को उसने आसानी से समझ लिया और स्टीयरिंग के पीछे बैठा इंसान बस उसे कुलांचे भरते देखता रहा. मुश्किल तब सामने आई जब रेडलाइट पर एक साइकिल सवार अचानक गलती से कार के सामने आ गया. कार ने उसे धक्का तो नहीं मारा लेकिन वो समझ नहीं पाई कि उसे क्या करना है तब स्टीयरिंग के पीछे अब तक खामोश बैठे शख्स ने उसे इस मुश्किल से निकाला. मतलब सब कुछ इतना आसान भी नहीं है. सरोज कौशिक कहती हैं,"इसमें जितनी चीजें हम सोच सकते हैं उन्हीं चीजों को डालते हैं साथ में कुछ ऐसी चीजें भी जिनकी आशंका होती है लेकिन इसके बावजूद बहुत कुछ ऐसा है जिनके बारे में पहले से सोचा नहीं जा सकता जाहिर है कि बिल्कुल इंसान का दिमाग बना पाना संभव नहीं है."
एक सवाल ये भी है कि इंसान का दिमाग तो लगातार विकास के दौर से गुजरने के बाद इस स्तर तक पहुंचा है आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के जरिए बना दिमाग भी क्या समय के साथ इसी तरह विकसित होगा. प्रोफेसर सरोज ने बताया कि इस तरह के एजेंट्स आ गए हैं जो अपनी समझ और आस पास के वातावरण से कुछ चीजों को लेकर लगातार विकास कर रहे हैं. ऐसे में उनके भीतर लगातार सुधार की प्रक्रिया चलती रहती है और उनकी समझ विकसित होती रहती है.
आर्टिफिशियल दिमाग विकास कर सकता है तो फिर क्या इसकी समझदारी और इंसान की समझदारी में कोई फर्क नहीं होगा और क्या इस दिमाग के फैसले भी उतने ही तार्किक होंगे जितने की इंसान के. प्रोफेसर सरोज ऐसा नहीं मानती. उनका कहना है,"एक छोटी सी बात से समझा जा सकता है कि आजतक सबकुछ होने के बाद भी हमारी मशीनें सोचने का काम कर सकें, कल्पना कर सकें ये मुमकिन नहीं है. एक छोटा सा बच्चा सोच कर कहानी गढ़ लेता है लेकिन कंप्यूटर ऐसा नहीं कर सकता. हां उसने कुछ काम ऐसे जरूर किए हैं जो इंसान के वश की बात नहीं थी और वो ऐसे काम आगे भी करते रहेंगे." पर अगर इंसान का बनाया दिमाग उसके जैसा ही हो गया तो मुश्किलें नहीं आएंगी. इसके अलावा एक बड़ा मसला ये भी तो है कि हमारी जिंदगी में तकनीक का दखल जितना ज्यादा बढ़ रहा है उससे जुड़ी नई परेशानियां भी सामने आ रही हैं. अब बच्चे के हाथ में खिलौना बना मोबाइल ऐसे भी खेल दिखा रहा जिसने हम सब के माथे पर चिंता की लकीरें खींची हैं. ये हालत अभी की है, आने वाले वक्त में जब हमारे ड्राइंग रूप से बेडरूम और हमारे दिल से दिमाग तक में घुस जाने वाला विज्ञान हमारी सोच में भी घुसने लगेगा तब क्या होगा...क्या नई मुसीबतें हमारे सामने नहीं आ जाएंगी. वैज्ञानिकों का मानना है कि ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि हमारे जीवन में तकनीक का विकास तो हो रहा है लेकिन इंसानों के लिए बुनियादी मूल्य नहीं बदले उस तरफ विकास की कोई बयार नहीं चली.विज्ञान से होने वाले नुकसान की यही वजह है जिस दिन विकास का पहिया इस तरफ मुड़ा ये समस्या अपने आप ही खत्म हो जाएगी. DW NEWS