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24 नवंबर, 2010

कमाल ! कमाल !! कमाल !!! दक्षिणी ध्रुव पर भारतीय दल ने फहराया तिरंगा


भारतीय वैज्ञानिकों की एक टीम ने दक्षिणी ध्रुव पर तिरंगा फहरा दिया है.शून्य से भी कई डिग्री नीचे तापमान और हड्डियों को कंपकपा देने वाली सर्दी की परवाह किये बगैर भारतीय वैज्ञानिकों ने यह कमाल दिखाया है . पूर्वी अंटार्टिका में मैत्री रिसर्च स्टेशन से भारतीय टीम ने 13  नवंबर को अपने अभियान की शुरुआत की थी . टीम को दक्षिणी ध्रुव तक की 2360 किलोमीटर की यात्रा करने में 9 दिन का समय लगा , इस बीच उन्हें पांच बार रूकना पड़ा.  अब टीम दक्षिणी ध्रुव पर 24-11-2010 तक रहेगी और उसके बाद मैत्री रिसर्च स्टेशन वापस लौटेगी. दक्षिणी ध्रुव की ओर यह पहली बार है जब भारतीय टीम ने अपना अभियान शुरू किया.

टेली कांफ्रेंसिंग के जरिए दक्षिणी ध्रुव से नेशनल सेंटर फॉर अंटार्टिक एंड ओशन रिसर्च के निदेशक रसिक रविंद्र ने बताया - "हमें दुनिया में सबसे ऊपर होने का एहसास हो रहा है."  वैज्ञानिकों और तकनीशियनों का आठ सदस्यीय दल दक्षिणी ध्रुव पर तिरंगा फहराने वाला पहला भारतीय वैज्ञानिक दल है. बेहद खराब मौसम को बयां करते हुए रविंद्र ने कहा, "यहां जबर्दस्त ठंड है. फिलहाल यहां तापमान - 70 डिग्री सेल्सियस है .

वैज्ञानिक दल ने वहां कई प्रयोग किए हैं,  उन्होंने वातावरण से डाटा संकलित किया है और वहां जम चुके महाद्वीप से बर्फ के अंश लिए है . इसके जरिए वैज्ञानिक पिछले 1,000 सालों में पर्यावरण में आए बदलावों का अध्ययन करना चाहते हैं. भारतीय वैज्ञानिकों की टीम में रसिक रविंद्र के अलावा अजय धर, जावेद बेग, थम्बन मेलोथ, असित स्वेन, प्रदीप मल्होत्रा, कृष्णामूर्ति और सूरत सिंह शामिल हैं.  भारतीय वैज्ञानिकों ने अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए एसयूवी गाड़ी (स्पोर्ट्स युटिलिटी व्हीकल) का इस्तेमाल किया.

 

22 नवंबर, 2010

हथिनी और मगरमच्छ में भिडंत के नज़ारे

आज  बी.बी. सी. हिन्दी के वेबसाईट  पर हाथी और मगरमच्छ की एक अदभूत , रोमांचक और जीवंत फोटो देख कर बचपन में सुनी ' बन्दर और मगरमच्छ ' तथा ' गज-ग्राह ' की   कहानी की याद ताजा हो गई . पहले तो हम आपको वह रोमांचक तस्वीर दिखाते है जो ज़ांबिया के एक राष्ट्रीय उद्यान में खिंची  गईं  है  ------- 

ये रोमांचक तस्वीरें ज़ांबिया के एक राष्ट्रीय उद्यान में ली गईं. नदी किनारे आई एक हथिनी से एक मगरमच्छ एकाएक भिड़ गया.

हथिनी जैसे ही पानी पीने के लिए झुकी मगरमच्छ ने उसकी सूंड पकड़ ली. यहां तक कि उसे घुटनों के बल झुका दिया.
फिर हथिनी ने अपनी ताकत संभालते हुए मगरमच्छ को पानी से बाहर खींच लिया.

कुछ दूर तक घिसटने के बाद मगरमच्छ ने अपनी पकड़ ढीली कर दी. हाथी का ये जोड़ा शाम को भी नदी पर पानी पीते देखा गया.

हाथी और मगरमच्छ की कहानी - ' गज-ग्राह ' 

विष्णु पुराण - 1 में हाथी और मगरमच्छ की प्रसिद्ध कहानी  जो गज-ग्राह के नाम से  प्रचलित है , इस कहानी में इन दोनों की लड़ाई 1000 साल तक चलती है    -- 

                    क्षीर सागर में स्थित त्रिकूट पर्वत पर लोहे, चांदी और सोने की तीन चोटियाँ थीं। उन चोटियों के बीच एक विशाल जंगल था जिसमें फलों से लदे पेड़ भरे थे। उस जंगल में गजेंद्र नामक मत्त हाथी अपनी असंख्य पत्नियों के साथ विहार करते अपनी प्यास बुझाने के लिए एक तालाब के पास पहुँचा।प्यास बुझाने के बाद गजेंद्र के मन में जल-क्रीड़ाएँ करने की इच्छा हुई। फिर वह अपनी औरतों के साथ तालाब में उतर कर पानी को उछालते हुए अपना मनोरंजन करने लगा। इस बीच एक बहुत बड़े मगरमच्छ ने गजेंद्र के दायें पैर को अपने दाढ़ों से कसकर पकड़ लिया। इस पर पीड़ा के मारे गजेंद्र चिंघाड़ने  लगा। उसकी पत्नियाँ घबरा  कर तालाब के किनारे पहुँचीं और अपने पति के दुख को देख आँसू बहाने लगीं। उनकी समझ में न आया कि गजेंद्र को मगरमच्छ की पकड़ से कैसे छुड़ायें ?

              गजेंद्र भी मगरमच्छ की पकड़ से अपने को बचाने के सारे प्रयत्न करते हुए छटपटाने लगा। गजेंद्र अपने दाँतों से मगरमच्छ पर वार कर देता और मगरमच्छ उछल कर हाथी के शरीर को अपने तेज नाखूनों से खरोंच लेता जिससे खून की धाराएँ निकल आतीं।

             हाथी मगरमच्छ की पीठ पर अपनी सूंड चलाता, मगरमच्छ अपनी ख़ुरदरी पूँछ से हाथी पर वार कर देता। अगर हाथी अपने चारों पैरों से मगरमच्छ को कुचलने की कोशिश करता तो वह पानी के तल में जाकर छिप जाता। इस पर हाथी किनारे पर पहुँचने के लिए आगे बढ़ता, तब झट से मगरमच्छ हाथी को पकड़ कर खींच ले जाता और उसे पानी में डुबो देता। इस तरह मगरमच्छ और हाथी के बीच एक हज़ार साल तक लगातार लड़ाई चलती रही।

           गजेंद्र अपनी ताक़त पर विश्वास करके हिम्मत के साथ लड़ता रहा, फिर भी धीरे-धीरे उसकी ताक़त घटती गई। मगरमच्छ तो पानी में जीनेवाला प्राणी है ! पानी के अंदर उसकी ताक़त ज़्यादा होती है ! वह हाथी का खून चूसते चूसते दिन ब दिन मोटा होता गया। हाथी कमजोर हो गया। अब सिर्फ़ उसका कंकाल मात्र रह गया। मगरमच्छ की पकड़ से अपने को बचा लेना हाथी के लिए मुमकिन न था।

          आख़िर गजेंद्र दुखी हो सोचने लगा, ‘‘मैं अपनी प्यास बुझाने के लिए यहाँ पर आया। प्यास बुझाने के बाद मुझे यहाँ से चले  जाना चाहिए था ! मैं नाहक़ क्यों इस तालाब में उतर पड़ा? मुझे कौन बचायेगा? फिर भी मेरे मन के किसी कोने में यह यक़ीन जमता जा रहा है कि मैं किसी तरह बच जाऊँगा। इसका मतलब है कि मेरी आशा का कोई आधार ज़रूर होगा। उसी को मैं ईश्वर कहकर पुकारता हूँ।''

          ‘देवता, भगवान, ईश्वर नामक भावना का मूल बने हे प्रभु ! तुम्हीं सभी कार्य-कलापों के कारण भूत हो !

          ‘‘मुझ जैसे घमण्डी प्राणी जब तक खतरों में नहीं फँसते, तब तक तुम्हारी याद नहीं करते ! दुख न भोगने पर तुम्हारी ज़रूरत का बोध नहीं होता ! तुम तब तक उसे दिखाई नहीं देते, जब तक वह यह नहीं मानता कि तुम हो, और उसके मन में यह खलबली नहीं मचती कि तुम हो या नहीं।'' इस तरह बराबर सोचनेवाले गजेंद्र को लगा कि मगरमच्छ के द्वारा सतानेवाली पीड़ा कुछ कम होती जा रही है ! गजेंद्र ने जब ध्यान करना शुरू किया, तभी मगरमच्छ के दाढ़ों के मसूड़ों में पीड़ा शुरू हुई। उसका कलेजा काँपने लगा। फिर भी वह रोष में आकर गजेंद्र के पैर को चबाने लगा .

            ‘‘प्राणियों की बुराई और पीड़ा को तुम हरनेवाले हो ! तुम सब जगह फैले हुए हो ! देवताओं के मूल रूप हे भगवान ! इस दुनिया की सृष्टि के मूलभूत कारण तुम हो। मैं यह विश्वास करता हूँ कि अपनी रक्षा करने के लिए मैं जितनी तीव्रता के साथ प्रार्थना करता हूँ, तुम उतनी जल्दी मेरी रक्षा कर सकते हो !

             ‘‘सब प्रकार के रूप धरनेवाले, वाणी और मन से परे रहनेवाले हे ईश्वर ! ऐसे अनाथों की रक्षा करनेवाली जिम्मेदारी तुम्हारी ही है न?

             ‘‘प्राण शक्तियाँ मेरे भीतर से जवाब दे चुकी हैं! मेरे आँसू सूख गये हैं? मैं ऊँची आवाज़ में तुम्हें पुकार भी नहीं सकता हूँ ! मैं अपना होश-हवास भी खोता जा रहा हूँ! चाहे तुम मेरी रक्षा करो या छोड़ दो, यह सब तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है। मेरे अंदर सिर्फ़ तुम्हारे ध्यान को छोड़ कोई भावना नहीं है। मुझे बचाने वाला भी तुम्हारे सिवाय कोई नहीं है !'' यों गजेंद्र सूंड उठाये आसमान की ओर देखने लगा।

              मगरमच्छ को लगा कि उसकी ताक़त जवाब देती जा रही है ! उसका मुँह खुलता जा रहा है। उसका कंठ बंद होता जा रहा है। उधर हाथी की आँखें इस तरह बंद होने लगीं कि उसे अपने अस्तित्व का ही बोध न था। वह एक दम अचल खड़ा रह गया।

             उस हालत में विष्णु आ पहुँचे। सारा आसमान उनके स्वरूप से भर उठा। गजेंद्र को लगा कि वह एक अत्यंत सूक्ष्म कण है।

            विष्णु ने अपना चक्र छोड़ दियाऔर अभय मुद्रा में अपना हाथ फैलाया। बड़ी तेज़ गति के साथ चक्कर काटते विष्णु-चक्र ने आकर मगरमच्छ का सर काट डाला।

            दरअसल मगरमच्छ एक गंधर्व था। उसका नाम ‘हुहू' था। प्राचीन काल में देवल नामक एक ऋषि पानी में खड़े होकर तपस्या कर रहे थे, तब मगरमच्छ की तरह पानी में छिपते हुए आकर गंधर्व ने उनका पैर पकड़ लिया। इस पर ऋषि ने उसे शाप दे डाला कि तुम मगरमच्छ की तरह इस पानी में पड़े रहो ! अब विष्णु-चक्र के द्वारा उसका शाप जाता रहा।

           मगरमच्छ से छुटकारा पानेवाले गजेंद्र को तालाब से बाहर खींचकर विष्णु ने अपनी हथेली से उसके कुँभ-स्थल को स्पर्श किया। उस स्पर्श की वजह से गजेंद्र अपनी खोई हुई ताक़त पाने के साथ पूर्व जन्म का ज्ञान भी प्राप्त कर सका।

           गजेंद्र पिछले जन्म में इंद्रद्युम्न नामक एक विष्णुभक्त राजा थे। विष्णु के ध्यान में मग्न उस राजा ने एक बार ऋषि अगस्त्य के आगमन का ख़्याल न किया। ऋषि ने क्रोध में आकर उसे शाप दिया कि तुम अगले जन्म में मत्त हाथी बनकर पैदा होगे। उसी दिन गजेंद्र के रूप में पैदा होकर उसने मुक्ति प्राप्त की।

          गजेंद्र मोक्ष की कहानी नैमिशारण्य में होनेवाले सत्र याग में पधारे हुए शौनक आदि मुनियों को सूत महर्षि ने सुनाई।मुनियों ने सूत महर्षि से कहा, ‘‘मुनिवर, गजेंद्र मोक्ष की कहानी हमें तो सिर्फ़ एक हाथी की जैसी मालूम नहीं होती, बल्कि सारे प्राणि कोटि से संबंधित मालूम होती है। ख़ासकर कई बंधनों और मुसीबतों में फँसकर तड़पनेवाले मानव जीवन से संबंधित लगती है।'' इसके जवाब में सूतमहर्षि बोले, ‘‘हाँ, गजेंद्र मोक्ष की कहानी श्लेषार्थ से भरी हुई है। उसका अन्वय जो जिस रूप में चाहे कर सकता है। काल तो विष्णु के अधीन में है। इसलिए काल-चक्र के परिभ्रमण में कई कठिनाइयाँ और समस्याएँ हल होती जाती हैं।''

           मुनियों ने पूछा, ‘‘मुनिवर, गजेंद्र मोक्ष के आधार पर हमें यह मालूम होता है कि प्रत्येक कार्य का कारणभूत सर्वेश्वर विष्णु हैं। ऐसे महाविष्णु की कहानी पूर्ण रूप से सुनने की इच्छा हमारे मन में जाग रही है। हम आपके सामने बच्चों के समान हैं। इसलिए हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप हमारी समझ में आने लायक़ सरल शैली में विष्णु कथा की सारी बातें समझा दें। आपने महर्षि व्यास के द्वारा समस्त पुराण, इतिहास और उनके मर्म को भी जान लिया है। इसलिए आप ही वे कहानियाँ सुनाकर हमको कृतार्थ कर सकते हैं।''

           मुनियों की बातें सुनकर सूत मुनि ख़ुश हुए और बोले, ‘‘हाँ, ज़रूर सुनाऊँगा। महर्षि व्यास ने विष्णु से संबंधित अनेक लीलावतारों की विशेषताओं को महा भागवत के रूप में रचा और अपने पुत्र शुक को सुनाया। विष्णु पुराण सुनकर भव सागर से तरने की इच्छा रखनेवाले महाराजा परीक्षित को शुक महर्षि ने सुनाया। गजेंद्र की रक्षा करने के लिए प्रकट हुए विष्णु का अवतार आदि मूलावतार माना गया।भगवान विष्णु ने कई अवतार लिए; उनमें विकास की दशाओं के अनुसार दशावतार नाम से प्रसिद्ध दस अवतार ज़्यादा मुख्य हैं।

            नार का अर्थ नीर है। विष्णु जल के मूल हैं, इसलिए वे नारायण कहलाये। नारायण से ही नीर या जल का जन्म हुआ। जल से प्राणी पैदा हुए। विष्णु मछली के रूप में अवतरित हुए; दशावतारों में वही पहला मत्स्यावतार है।विष्णु जल से भरे नील मेघ के रंग के होते हैं। मेघ के अंदर जैसे बिजली छिपी हुई है, उसी प्रकार विष्णु स्वयं तेजोमय हैं, उनके भीतर से उत्पन्न जल भी तेज से भरे रहकर गोरे रंग का प्रकाश बिखेरता रहता है। वही जल कारणोदक क्षीर सागर है।

            क्षीर सागर में अनंत रूपी काल (समय) शेषनाग के रूप में कुंडली मारे लेटा रहता है। शेषनाग के एक हज़ार फण हैं। अनन्त शेषनाग पर शेषशायी के रूप में विष्णु लेटे रहते हैं। उनकी नाभि में से एक लंबे नाल के साथ एक पद्म ऊपर उठा। उसी पद्म से ब्रह्मा का उदय हुआ। ब्रह्मा ने सभी प्राणियों की सृष्टि की।

                अनंतकाल युगों के रूप में चलता रहता है। कृत, त्रेता, द्वापर और कलियुग - इन चारों को मिलाकर एक महा युग होता है।एक हज़ार महायुग मिलकर एक कल्प होता है। एक कल्प ब्रह्मा का एक दिन होता है (रात का व़क्त इसमें शामिल नहीं है) दिन के समाप्त होते ही उन्हें नींद आ जाती है। वही कल्पांत है। उस व़क्त चारों ओर गहरा अंधेरा छा जाता है। विष्णु से निकली संकर्षण की अग्नि सब को जला देती है। झंझावात चलने लगते हैं, तब भयंकर काले बादल हाथी की सूंडों जैसी जलधाराएँ लगातार गिराने लगती हैं। महासमुद्र में आसमान को छूनेवाला उफान होता है। भू, भुवर और स्वर्ग लोक डूब जाते हैं। चारों तरफ़ जल को छोड़ कुछ दिखाई नहीं देता। यही ब्रह्मा के सोने की रात प्रलयकाल है। यही कल्पांत का समय है।
            सत्यव्रत नामक राजर्षि नदी में नहाकर नारायण का ध्यान करके जब वे अर्घ्य देने को हुए तब उनकी अंजलि में सोने के रंग की एक छोटी मछली आ गई। सत्यव्रत उस मछली को नदी में छोड़ने जा रहे थे, तब वह मछली बोल उठी, ‘‘हे राजन, हमारी मछली की जाति अच्छी नहीं होती, छोटी मछलियों को बड़ी मछलियॉं खा जाती हैं। अगर उनसे बच भी जाये, मछुआरे जाल फेंककर पकड़ लेते हैं। इसलिए मैं आपकी शरण माँगने अंजलि में आ गई हूँ। कृपया से मुझे छोड़ न दीजियेगा।''

         सत्यव्रत मछली को अपने कमंडलु में रखकर अपने नगर में ले गये। वे महाराजा के रूप में राज्य करते हुए बड़ी तपस्या करनेवाले एक राजर्षि थे। विष्णु के परम भक्त और बड़े ज्ञानी थे।

       कमण्डलु के भीतर वाली छोटी मछली दूसरे दिन तक बड़ी हो गई और छटपटाते आर्तनाद करने लगी, ‘‘महाराज, मुझको कमण्डलु से निकाल कर बड़ी जगह पहुँचा दीजिए।''

        इस पर मछली को बड़े नांद में छोड़ दिया गया। वह थोड़ी ही देर में बहुत बड़ी हो गई, तब सत्यव्रत ने उसे एक तालाब में डाल दिया। मछली बराबर बढ़ती गई, तब उसे तालाब से बड़ी नदी में, नदी से समुद्र में पहुँचाया गया।

          इस पर मछली ने पूछा, ‘‘हे राजर्षि, मैं आपकी शरण में आया हूँ। ऐसी हालत में क्या आप मुझे समुद्र में छोड़कर चले जायेंगे? क्या मगरमच्छ और तिमिंगल मुझको निगल नहीं जायेंगे?''

         सत्यव्रत ने कहा, ‘‘हे महामीन, बताओ, मैं इससे बढ़कर तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ? पल भर में सौ योजन बढ़नेवाले तुमको भला कौन प्राणी निगल सकता है !''

अब पढ़िए बन्दर और मगरमच्छ की पंचतंत्र से ली गई कहानी ------- 

                नदी के किनारे एक जामुन का पेड़ था जिस पर एक बन्दर रहता था और नदी में एक मगरमच्छ रहता था , इन दोनों में बड़ी मित्रता थी. बन्दर रोज मगरमच्छ को जामुन तोड़ तोड़ कर खिलाता था . एक दिन मगरमच्छ ने अपनी पत्नी को कुछ जामुन खिलाये . पत्नी को जामुन खूब मीठे और अच्छे लगे. मगरनी ने मगर से पूछा -  हे प्राणनाथ इतने मीठे जामुन कहाँ से लाये  हो ? तब  मगर ने कहा एक बन्दर मुझे  रोज मीठे मीठे जामुन लाकर देता है .तब  मगरनी ने कहा - ओह जब बन्दर इतने मीठे जामुन खाता है तो उसका कलेजा जरूर   मीठा होगा मुझे उसका मीठा  कलेजा खाने को लाकर दो .मगरमच्छ जब ना-नुकुर करने लगा तो मगरनी ने मगर से क्रोधित होकर कहा  - यदि मुझे बन्दर का कलेजा खाने को नहीं मिला तो मै अपना  प्राण त्याग दूंगी .

             मगर बन्दर के पास पहुंचा और बोला - मित्र तेरी भाभी बड़ी नाराज है और कह रही थी कि तुम रोज रोज उसके यहाँ खाते हो कम से कम एक बार उसे एक बार बुला कर अपने यहाँ खाना खिलवा दो . बन्दर बोला भैय्या सब ठीक है मगर मै पानी के अन्दर कैसे जाऊंगा क्यों न तुम भाभी को मेरे पास यही ले आओ ?

            मगर - बन्दर भाई नदी के अन्दर मेरा घर है वह बड़ा सुन्दर है . तुम जाने की चिंता न करो . मै अपनी पीठ पर तुम्हे बैठा कर ले जाऊंगा .फिर क्या था  बन्दर मगर के झांसे में आ गया और उसकी पीठ पर बैठ गया ; मगर उसे लेकर तेजी से चलने लगा . जब मगर को विश्वास हो गया कि गहरे पानी में अब बन्दर भाग नहीं सकता है तो उसने सोचा की क्यों न बन्दर को सच बता दिया जाए . भाई बन्दर सत्य बात तो यह है की मेरी पत्नी तुम्हारा कलेजा खाना चाहती है  इसीलिए मैंने ऐसा किया है .बन्दर तड़  से समझ गया कि वह मगर के जाल में फंस गया है और मौत उससे दूर नहीं है . बन्दर ने बुद्धि लगाई और  बोला वाह मित्र यदि यह बात थी तो मुझे तुमने पहले क्यों नहीं बताया  . तुम्हारी पत्नी को मेरा कलेजा चाहिए  मगर मै तो  अपना कलेजा   जामुन के पेड़ के एक खोह में छोड़ आया हूँ  .

              मगर बोला यदि यह  बात है तो मै तुम्हे जामुन के पेड़ तक ले चलता हूँ वहां से तुम अपना कलेजा  निकालकर मुझे दे देना ताकि मेरी पत्नी खुश हो जाये नहीं तो वह मर जायेगी .बन्दर बोला हाँ हाँ क्यों नहीं तुम मेरे जिगरी दोस्त हो आखिर दोस्त होकर मै तुम्हारेलिए कब काम आऊंगा .जल्दी से मुझे पेड़ के पास ले चलो . मगरमच्छ  मोटी बुद्धि का था और वह बन्दर की चाल नहीं समझ सका और पेड़ की और वापस चल पड़ा . जैसे ही पेड़ पास में आया बन्दर छलांग मारकर पेड़ पर चढ़ गया और मगर से बोला - हे महामूर्ख मगरमच्छ दुष्ट जरा सोच क्या किसी का दो कलेजा  है ? अब तेरी भलाई इसी में है कि तू यहाँ से चले जा और इधर भूलकर कभी न आना . बन्दर की बात सुनकर मगर पछताने लगा की मेरी मूर्खता के कारण एक अच्छा मित्र हाथ से निकल गया और पत्नी भी नाराज हो गई .

              मगर को फिर एक चाल सूझी वह बन्दर से बोला - अरे तुम तो मेरे मजाक को सच मान गए हो मै तो वैसे ही कह रहा था अब चलो मेरे घर मित्र . बन्दर - अरे दुष्ट तू यहाँ से चले जा भूखा क्या नहीं कर सकता है . मगरमच्छ इतना सुनते ही अपना सा मुंह लेकर वापस चला  गया .बन्दर बोला - अरे  दुष्ट मै अब समझ गया हूँ कि  तू बाघ  की खाल में छिपा एक गधा है याद रख तेरी पोल खुल चुकी है एक दिन तूं  दुष्टता के कारण मारा जाएगा .

21 नवंबर, 2010

त्योहारों का अनोखा संगम कार्तिक पूर्णिमा व प्रकाश उत्सव

कार्तिक पूर्णिमा 

दीप-दान करती महिला
  हिंदू धर्म में पूर्णिमा का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है.प्रत्येक वर्ष पंद्रह पूर्णिमाएं होती हैं. जब अधिक मास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर १६ हो जाती है. कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा या गंगा स्नान के नाम से भी जाना जाता है. इस पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा की संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि आज के दिन ही भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर नामक महाभयानक असुर का अंत किया था और वे त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए थे.ऐसी मान्यता है कि इस दिन कृतिका में शिव शंकर के दर्शन करने से सात जन्म तक व्यक्ति ज्ञानी और धनवान होता है. इस दिन चन्द्र जब आकाश में उदित हो रहा हो उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी की प्रसन्नता प्राप्त होती है. इस दिन गंगा नदी में स्नान करने से भी पूरे वर्ष स्नान करने का फल   मिलता है.

                     छत्तीसगढ़ में महीने भर प्रात: तड़के उठ कर स्नान करने की प्राचीन परंपरा है ,आज कार्तिक पुन्नी स्नान का अंतिम दिन है .जलाशयों में स्नान कर लोग विशेष कर महिलाएं दीप-दान करती हैं. आवलें के वृक्ष की पूजा कर उसके नीचे भोजन बन कर  सामूहिक भोजन करती है .बचपन में इस त्यौहार का एक अपना ही आनंद था.

प्रकाश उत्सव  

गुरूनानक देवजी
    आज प्रकाश उत्सव भी है . सिखों के प्रथम  गुरू गुरूनानक देवजी का  जन्मोत्सव को प्रकाश उत्सव के रूप में मनाया जाता है . गुरु नानक देवजी का प्रकाश (जन्म) 15 अप्रैल 1469 ई. (वैशाख सुदी 3, संवत्‌ 1526 विक्रमी) में तलवंडी रायभोय नामक स्थान पर हुआ था . सुविधा की दृष्टि से गुरु नानक का प्रकाश उत्सव कार्तिक पूर्णिमा को मनाया जाता है. तलवंडी अब ननकाना साहिब के नाम से जाना जाता है. तलवंडी पाकिस्तान के लाहौर से 30 मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। गुरु नानक जी ने पंडित हरदयाल से शिक्षा -दीक्षा ग्रहण की थी .( यह संयोग ही है कि मेरे पिताश्री का नाम भी श्री हरदयाल बजाज था ,वे  स्वर्ग सिधार चुकें है लेकिन ईश्वर की कृपा से  माता सावित्री देवी का ममत्व हमें आज भी मिल रहा है .)



 
जीती नौखंड मेदनी सतिनाम दा चक्र चलाया , भया आनंद जगत बिच कल तारण गुरू नानक आया ।

कार्तिक पूर्णिमा एवं प्रकाश उत्सव  की आपको बहुत बहुत बधाई !


      - अशोक बजाज  (Ashok Bajaj Raipur)
फोटो साभार गूगल

18 नवंबर, 2010

करगिल युद्ध के 11 साल बाद पाकिस्तान ने अपनी भूमिका स्वीकारी

       पको याद होगा कि पाकिस्तान की सेना और कश्मीरी उग्रवादियों ने मई और जुलाई  1999 के मध्य भारत और पाकिस्तान के बीच की नियंत्रण रेखा पार करके भारत की ज़मीन पर कब्ज़ा करने की कोशिश की थी । पाकिस्तान ने दावा किया था  कि लड़ने वाले सभी कश्मीरी उग्रवादी हैं, लेकिन युद्ध में बरामद हुए दस्तावेज़ों और पाकिस्तानी नेताओं के बयानों से साबित हुआ कि पाकिस्तान की सेना प्रत्यक्ष रूप में इस युद्ध में शामिल थी।  करगिल युद्ध के दौरान  और उसके बाद भी पाकिस्तान कहता रहा  कि इस लड़ाई में उसका कोई सैनिक शामिल नहीं था। भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना के कई सर्विंग जवानों को पकड़ा था , लेकिन इसके बावजूद पाकिस्तान यही राग अलापता रहा कि इस  युद्ध में उसका कोई हाथ नहीं है.
           युद्ध के 11 साल बाद पाकिस्तानी आर्मी ने अपने वेब साईट के माध्यम से करगिल  युद्ध में एक तरह से अपनी भूमिका स्वीकार करते हुए इस दौरान मारे गए अपने 453 सैनिकों को शहीद करार दिया है. अब तक पाकिस्तान करगिल युद्ध में अपनी किसी तरह की भूमिका से इनकार करता रहा है। युद्ध के 11 साल बाद उसने वेबसाइट पर बताया है कि ये सैनिक कहां और क्यों मारे गए।
               ये 453 सैनिक बटालिक-करगिल सेक्टर में मारे गए थे। सैनिकों की इस फेहरिस्त के पहले पेज पर कैप्टन कर्नल शेर और हवलदार ललक जान के नाम हैं। दोनों 7 जुलाई 1999 को करगिल में मारे गए थे। पाकिस्तान के सबसे बड़े सैन्य सम्मान 'निशान-ए-हैदर' से उन्हें नवाजा गया था। कई अन्य सैनिकों को भी मरणोपरांत तमगा-ए-जुर्रत जैसे पुरस्कारों से नवाजा गया था। करगिल में मारे गए ज्यादातर जवान नॉर्दर्न लाइट इन्फैंट्री के थे। यह अब पाकिस्तानी आर्मी का रेग्युलर रेजिमेंट है। पहले यह अर्धसैनिक बल था। 
             पाकिस्तानी सेना ने वेबसाइट पर अपने करगिल सैन्य अभियान का नाम भी उजागर किया है। बताया है कि ऑपरेशन 'खोह-ए-पैमा' के तहत नियंत्रण रेखा के पार भारतीय सरजमीं के सामरिक महत्व के पहाड़ों और चोटियों पर कब्जा किया गया था। इसे 'ऑपरेशन करगिल' भी बताया गया है। सैनिकों की मौत की वजहें अलग-अलग बताई गई हैं। इनमें 'कार्रवाई के दौरान मौत', 'दुश्मन की कार्रवाई', 'दुश्मन की फायरिंग', 'दुश्मन की आर्टिलरी की गोलाबारी' और 'सड़क दुर्घटना' जैसी वजहें प्रमुख हैं। मारे गए सैनिकों का नाम, रैंक, यूनिट, मौत की जगह और मौत की वजह भी बताई गई है। 
                                                                                      - अशोक बजाज