सड़ता अनाज और न्यायालय का फैसला
प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने सुप्रीमकोर्ट को नीतिगत मामलो में हस्तक्षेप न करने की नसीहत देकर एक नये विवाद को जन्म दे दिया है । न्यायालय के आदेश, निर्देश या इच्छा को न मानने या उसे लंबित रखने का वाक्या तो पहले भी हुआ है लेकिन यह पहली बार हुआ है कि देश के सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति ने अधिकारिक तौर पर नीतिगत मामलो मे हस्तक्षेप न करने की नसीहत न्यायालय को दी है । इसके पूर्व 8 मई को बार एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया की स्वर्ण जयंती के अवसर पर आयोजित एक सम्मेलन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका को संविधान से मिले अधिकार क्षेत्र को पार नहीं करना चाहिए और जनहित में तीनों अंगों को सामंजस्य के साथ काम करना चाहिए।
न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी और दीपक वर्मा की खंडपीठ ने 12 अगस्त को एक फ़ैसले में कहा था कि "अनाज बर्बाद हो इससे बेहतर है कि उसे भूखे गरीबों में बाँट दें।"सबसे पहले कृषि मंत्री शरद् पवार ने न्यायालय के आदेश को सुझाव मानकर टाल दिया । बाद में न्यायालय को पुनः कहना पड़ा कि यह सुझाव नही बल्कि आदेश है।डा. मनमोहन सिंह अब कृषि मंत्री शरद् पवार के बचाव में आ गये है, अपनी सरकार बचाने के लिए शरद् पवार का बचाव करना उनकी राजनैतिक मजबूरी भी है । लेकिन उनके रूख को केवल राजनैतिक मजबूरी कह देने मात्र से काम नही चलेगा ।
आमतौर पर वृथा बयान बाजी से बचने वाले प्रधानमंत्री ने यदि यह बयान दिया है तो इसमें कई बातें निहित है । पहला तो यह कि यदि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को मान लिया जाता तो इसमें सरकार की कमजोरी उजागर हो जाती । लोग कहते कि सरकार अनाज को सुरक्षित नही कर पा रही थी इसीलिए गरीबो को बांट रही है । दूसरा इसका कोई राजनैतिक लाभ इन्हें नही मिलता क्योंकि सरकार के बजाय न्यायालय को इसका श्रेय जाता । तीसरी बात जो डा. मनमोहन सिंह के बयान में निहित है वह यह है कि यदि एक बार मुफ्त बांटने की प्रक्रिया शुरू हो गई तो हमेशा के लिए यह परम्परा बन जायेगी । वैसे प्रधानमंत्री ने अपने बयान में जो कारण बताया है उसमें उन्होंने कहा कि गरीबो को मुफ्त अनाज बांटने से अन्न-उत्पादन पर प्रतिकुल असर पड़ेगा । मामला था सड़ रहे अनाज को गरीबों में मुफ्त बांटने का । उचित रख रखाव के अभाव में करोड़ो रूपियो का अनाज सड़ रहा है । जिस देश की कुल आबादी के लगभग 37 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहें हों, उस देश में लाखों टन अनाज सड़ जाय यह कितनी दुर्भाग्य जनक बात है । वास्तव में यह मेहनतकस किसानो के पसीने का अपमान है, यह राष्ट्रीय क्षति है । इसे गरीबों को बांट देने से सरकार की कोई नीति प्रभावित हो रही है, ऐसा कहीं नही लगता । इससे कांग्रेस या उसके सहयोगी दलों का दृष्टिकोण गरीबो के प्रति कितना उदार या कठोर है इसकी परख होती है ।
दरअसल यह मामला अब केवल सड़ते हुये अनाज को बांटने या न बांटने तक सीमित नही है । बल्कि यह मामला कार्यपालिका एंव न्यायपालिका के सम्बंधों से जुड़ गया है । जिस देश में संविधान की संप्रभुता है, जिस देश में संविधान के संरक्षण की जिम्मेदारी न्यायपालिका को है उस देश की सरकार सुप्रीम कोर्ट को नसीहत दे या उसके निर्णय को सुझाव मानकर टाल दे ,यह दुर्भाग्य जनक बात है ।केन्द्र सरकार जिस पर देश में शांति, सद्भाव व अनुशासन बनाये रखने की जिम्मेदारी है वह स्वयं कितनी अनुशासनहीन है यह प्रधानमंत्री एवं कृषि मंत्री या यों कहे की केन्द्र सरकार के वर्तमान रवैया से जाहिर हो गया है । कार्यपालिका और न्यायपालिका के संमबंध तनावपूर्ण हो गये है । प्रधानमंत्री के शब्द बाण से न्यायपालिका के प्रति जन-श्रद्धा कसौटी पर आ गई है। कोई जरूरी नही कि न्यायालय का फैसला हर बार अपने अनुकूल आये, यदि फैसला अपनी इच्छा के विरूद्ध भी आता है तो न्यायालय के प्रति श्रद्धा व सम्मान बना रहता है, यह इस देश की संस्कृति है । इस संस्कृति को बनाये रखने की जिम्मेदारी जनता, सरकार व स्वयं न्यायपालिका की भी है। आने वाले समय में ऐसे अनेक अवसर आयेंगें जब प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के बयान को लोग कोर्ट के फैसलों में “कोड” करेगें। इसीलिए यह मामला केवल असुरक्षित अनाज को गरीबो को बांटने या न बांटने तक सीमित न हो कर कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव का हो गया है। वर्तमान केन्द्र सरकार के रूख का दुष्परिणाम सदियों तक झेलना पड़ सकता है जो लोकतंत्र के सेहत के लिए ठीक नहीं है इस स्थिति में देश के महामहिम राष्ट्रपति स्वयं हस्तक्षेप कर विवाद को टालें तो उचित होगा। 00205 PHOTO BY GOOGLE