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07 जुलाई, 2011

मनुष्य ही जलवायु परिवर्तन का कारक और निवारक है- अशोक बजाज

नुष्य ही जलवायु परिवर्तन का कारक और निवारक है अतः  बचपन से ही मनुष्य को पर्यावरण के प्रति जागरूक रहना चाहिए. उक्त उद्गार  छ.ग. भण्डार गृह निगम के अध्यक्ष अशोक बजाज ने अभनपुर विकास खंड़ के ग्राम हसदा में शाला प्रवेशोत्सव एवं पर्यावरण जागरूकता कार्यक्रम में व्यक्त किये. श्री बजाज ने कहा कि पानी और उर्जा का अपव्यय न करें तथा वातावरण को स्वच्छ व सुन्दर बनायें . इस अवसर पर श्री बजाज ने स्कूली बच्चों को पौधा वितरण किया तथा आजीवन उसकी रक्षा करने का संकल्प कराया.रंगारंग सांस्कृति कार्यक्रम के साथ विद्यार्थियों को पुस्तकों के साथ गणवेश वितरण किया गया। अशोक बजाज जी ने नव प्रवेशी विद्यार्थियों का मिठाई खिला कर स्वागत किया .

कार्यक्रम में सरपंच लिलेश्वरी साहू ,सरपंच प्रतिनिधि व्यासनारायण साहू,  किसान राईसमील के अध्यक्ष माधो प्रसाद मिरी,वरिष्ठ ब्लागर ललित शर्मा ,नोहर राम साहू, जगदीश साहू, गजाधर साहू, महादेव निर्मलकर, जगत साहू, रेखराम यादव, गोवर्धन साहू, रामप्रसाद जोशी, कल्लूराम कोसरे, हीरावन चेलक, युवराज पटेल, पुरानिक साहू,स्कूल के प्राचार्य रामूदास कार्ले , ग्राम के वरिष्ठ नागरिक एवं स्कूली छात्र  उपस्थित थे.
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विकलांग बना चैंपियन

चंपारण के कर्मयोगी

05 जुलाई, 2011

विकलांग बना चैंपियन

सिलाई मशीन पर तेज़ी से चलते पैर, बिन हाथों के सुई में धागा डालने का हुनर और मुंह में ब्रश थामकर रंगों के साथ ऐसी कलाकारी कि हाथों से बनी बेहतरीन कलाकृति भी फीकी पड़ जाए. इस हफ़्ते 'सिटीज़न रिपोर्ट' की कड़ी में एक ऐसी गुमनाम शख़्सियत की कहानी जो पेशे से दर्ज़ी हैं, हुनर से एक बेहतरीन चित्रकार और अंतरराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी भी. फ़र्क है तो सिर्फ़ इतना कि कामयाबी की इस इबारत को लिखने के लिए इनके पास हाथ नहीं हैं.इस शख़्सियत का नाम है बिनोद कुमार सिह .


 

बिनोद कुमार सिंह की कहानी  अपनी जुबानी :---

 

मेरा नाम बिनोद कुमार सिंह है और मैं कोलकाता में रहता हूं.

मैंने जब होश संभाला तो देखा कि मुश्किलें ज़िंदगी का दूसरा नाम हैं. जन्म से ही दोनों हाथ न होने के बावजूद मैंने अपने पैरों से लिखना सीखा, नौकरी न मिलने पर रोज़ी-रोटी के लिए सिलाई-कढ़ाई सीखी और मां-बाप का सपना पूरा करने के लिए तैरना सीखा. 

मेरे पिताजी ने जब मुझे पहली बार देखा तब से आज तक वो हमेशा ये कहते हैं कि मैं दूसरे लड़कों से अलग हूं और ज़रूर उनका नाम रोशन करूंगा. आठवीं में पहुंचने के बाद खेल-कूद में मेरी रूचि बढ़ने लगी. शुरुआत हुई दौड़ से, जिसके बाद मैंने फ़ुटबॉल खेलना शुरु किया और जल्द ही मैं स्कूल और कॉलेज स्तर का चैंपियन बन गया.इसके बाद मैंने हाई-जंप में अपना लोहा मनवाया लेकिन इस कड़वी सच्चाई से भी रूबरु हुआ कि विकलांग खिलाड़ी भले ही बेहतर खेलें लेकिन वो उन्हीं प्रतियोगिताओं में हिस्सा ले सकते हैं जो खासतौर पर विकलांगों के लिए हों.आख़िरकार मैंने स्विमिंग में अपना हुनर पहचाना और ठान लिया कि जैसे भी हो स्विमिंग चैंपियन बनूंगा.

जब मैं पहली बार अपने कोच के पास प्रशिक्षण के लिए गया तो वे मुझे देखकर हैरान हो गए. उन्हें लगा कि बिन हाथों के मेरे लिए तैरना असंभव होगा. उन्होंने कहा कि मुझे तीन दिन में तैरकर दिखाना होगा और तभी वो मुझे प्रशिक्षण देंगे.लेकिन मैं उनकी चुनौती पर खरा उतरा और तीन ही दिन में मैंने पानी में खड़ा होना, चलना और लेटना सीख लिया.कुछ महीनों के प्रशिक्षण के बाद आखिरकार आठ अप्रैल 2005 को मैं पहली बार पानी में उतरा. मैंने राज्य स्तर पर तैराकी प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए ट्रायल दिया और मुझे चुन लिया गया.

इसके बाद मुझे ऑल इंडिया स्तर पर खेलने का मौका मिला जिसमें मैंने चार स्वर्ण पदक जीते. जुलाई 2006 में मैंने पहली बार ब्रिटेन में हुई एक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में हिस्सा लिया जिसके बाद 'वर्ल्ड गेम्स' में मैंने एक स्वर्ण और एक रजत पदक जीता.इसके बाद मैं लगातार प्रतियोगिताएं जीतता रहा और कई बार अंतरराष्ट्रीय आयोजकों ने अपने ख़र्च पर मुझे प्रतियोगिताओं के लिए आमंत्रित किया.

लेकिन मुझे अपनी ज़िंदगी से सबसे बड़ी शिकायत है कि मैंने एक ऐसी व्यवस्था में जन्म लिया है जिसने जी तोड़ मेहनत के बावजूद क़दम-क़दम पर मुझे धोखा दिया.

2009 में हुए वर्ल्ड गेम्स के लिए मेरा चयन हुआ और मुझे अगस्त महीने में जाना था लेकिन दो अगस्त को मुझसे कहा गया कि मुझे जाने के लिए पैसों का इंतज़ाम ख़ुद करना होगा.

मुझे और मुझ जैसे दूसरे विकलांग खिलाड़ियों को अगर यह बात समय रहते बताई गई होती तो शायद हम इस प्रतियोगिता में शामिल हो पाते.

भारत में चयन प्रक्रिया का  आंकलन  किया जाए तो पता लगेगा कि सामान्य खिलाड़ियों की श्रेणी में जहां ऐसे खिलाड़ी चुन लिए जाते हैं जो कुछ भी जीतकर नहीं ला पाते वहीं विकलांग खिलाड़ियों को क़ाबिलियत होने के बावजूद देश के लिए खेलने का ही मौका नहीं मिल पाता.

बावजूद इसके कि वो साल दर साल ज़्यादा से ज़्यादा मेडल जीतकर ला रहे हैं.सरकार भले ही पैरा-ओलंपिक कमेटियों के ज़रिए विकलांग खिलाड़ियों की आर्थिक मदद का दावा करती हो लेकिन आर्थिंक तंगी के चलते विकलांग खिलाड़ी प्रतियोगिताओं में हिस्सा नहीं ले पाते. 


2008 में मैं अपने पिता की ग्रेच्यूटी के पैसे से वर्ल्ड गेम्स में हिस्सा लेने जा सका. मेरे साथी ने इसके लिए अपनी मां के गहने बेचे. फिर भी मैंने हार नहीं मानी है और मैं जी-तोड़ कोशिश करूंगा कि पैरा-ओलंपिक में हिस्सा लूं और देश के लिए मेडल लाऊं.

हम सरकार को दिखाना चाहते हैं कि विकलांग देश पर बोझ नहीं और वो सभी कुछ कर सकते हैं, अगर उन्हें मौक़ा दिया जाए.


पारुल अग्रवाल
पारुल अग्रवाल
बीबीसी संवाददाता, दिल्ली

03 जुलाई, 2011

भगवान जगन्नाथ रथ यात्रा




उड़ीसा के जगन्नाथपुरी मंदिर का दृश्य
ड़ीसा के पुरी एवं गुजरात के अहमदाबाद सहित देश भर में रविवार को भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा प्रारंभ हो गई है ।हर साल मनाए जाने वाले महामहोत्सवों में जगन्नाथपुरी की रथयात्रा सबसे अहम और महत्वपूर्ण है। यह परंपरागत रथयात्रा न सिर्फ हिन्दुस्तान,बल्कि विदेशी सैलानियों के भी आकर्षण का केंद्र है। श्रीकृष्ण के अवतार जगन्नाथ की रथयात्रा का पुण्य सौ यज्ञों के बराबर माना गया है। रथयात्रा के दौरान भक्तों को सीधे प्रतिमाओं तक पहुँचने का मौका जो मिलता है। पुरी का जगन्नाथ मंदिर भक्तों की आस्था केंद्र है, जहाँ सालभर भक्तों की भी़ड़ लगी रहती है, जो बेहतरीन नक्काशी व भव्यता लिए है। लेकिन रथोत्सव के वक्त इसकी छटा निराली होती है, जहाँ विश्वविधाता जगन्नाथ को अपनी जन्मभूमि का, तो बहन सुभद्रा को मायके का मोह खींच लाता है।

दस  दिवसीय महोत्सव :-  इस दस  दिवसीय महोत्सव की तैयारी का श्री गणेश अक्षय तृतीया को श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण से होता है और कुछ धार्मिक अनुष्ठान भी महीनेभर किए जाते हैं।

गरुड़ध्वज :- जगन्नाथजी का रथ 'गरुड़ध्वज' या 'कपिलध्वज' कहलाता है। 16 पहियों वाला रथ 13.5 मीटर ऊँचा होता है जिसमें लाल व पीले रंग के कप़ड़े का इस्तेमाल होता है। विष्णु का वाहक गरु़ड़ इसकी हिफाजत करता है। रथ पर जो ध्वज है, उसे 'त्रैलोक्यमोहिनी' कहते हैं।

तलध्वज :- बलराम का रथ 'तलध्वज' के बतौर पहचाना जाता है, जो 13.2 मीटर ऊँचा 14 पहियों का होता है। यह लाल, हरे रंग के कप़ड़े व लक़ड़ी के 763 टुक़ड़ों से बना होता है। रथ के रक्षक वासुदेव और सारथी मताली होते हैं। रथ के ध्वज को उनानी कहते हैं। त्रिब्रा, घोरा, दीर्घशर्मा व स्वर्णनावा इसके अश्व हैं। जिस रस्से से रथ खींचा जाता है, वह बासुकी कहलाता है।

पद्मध्वज :- 'पद्मध्वज' यानी सुभद्रा का रथ। 12.9 मीटर ऊँचे 12 पहिए के इस रथ में लाल, काले कप़ड़े के साथ लकड़ी के 593 टुकड़ों का इस्तेमाल होता है। रथ की रक्षक जयदुर्गा व सारथी अर्जुन होते हैं। रथध्वज नदंबिक कहलाता है। रोचिक, मोचिक, जिता व अपराजिता इसके अश्व होते हैं। इसे खींचने वाली रस्सी को स्वर्णचुडा कहते हैं। दसवें दिन इस यात्रा का समापन हो जाता है।


जगन्नाथ रथयात्रा

02 जुलाई, 2011

भारत के लिए टाइम बम है मुद्रास्फीति

जी हाँ मुद्रास्फीति भारत के लिए एक टाइम बम के सामान है , हालाँकि इस समय सारी दुनिया में विशेषकर  यूरोप में ग्रीस के वित्तीय संकट की चिंता है , लेकिन जर्मन अखबार " वेल्ट आम जोनटाग " का कहना है कि आगामी वर्षों  में मुद्रास्फीति भारत  के लिए  चिंता का विषय बन सकता है.

 समाचार पत्र का यह भी कहना है कि भारत बहुराष्ट्रीय कंपनियों की पसंदीदा मंजिल है  तथा यह देश निवेशकों का प्यारा हो चुका है. यहाँ  चीन की तरह  तेजी से  आर्थिक वृद्धि जारी है लेकिन साथ ही  साथ कीमतें भी तेजी से बढ़ रही हैं. इस बीच मुद्रास्फीति की दर 9.1 फीसदी हो चुकी है. मुख्य ब्याज दर इस वक्त सिर्फ 7.5 फीसदी है. यानी अगर कोई कर्ज लेता है तो उसे मुद्रास्फीति की दर से भी कम ब्याज देना पड़ता है. यानी उधार लेकर खर्च करने में फायदा है. पश्चिम के देश ब्याज दर बढ़ाकर इस स्थिति को बदल सकते हैं. लेकिन इसकी उम्मीद नहीं के बराबर है. इस वक्त वे ग्रीस व दूसरी समस्याओं में इस तरह फंसे हैं कि नए विकसित देशों के बारे में सोचने की फुर्सत ही नहीं है. लेकिन घाव वहीं पनपते हैं, जहां नजर नहीं जाती है.

दुनिया आपस में जुड़ती जा रही है. अगर सऊदी अरब या दुबई में संकट हो, तो केरल के लोगों के माथे पर शिकन आ जाती है. समाचार पत्र नॉय त्स्युरषर त्साइटुंग में इस सिलसिले में एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अरब देशों  में 40 लाख भारतीय नागरिक काम करते हैं, सिर्फ सऊदी अरब में ही 15 लाख, और संयुक्त अरब अमीरत में दस लाख से अधिक. इनमें से अधिकांश  केरल के हैं. रफीक कहते हैं कि यहां अंग्रेजों का राज था, और चूंकि उनके पूर्वज अंग्रेजों के खिलाफ थे, वे बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में नहीं भेजते थे. वे मदरसे में पढ़ाई करते थे. आजादी के बाद कोझीकोडे में नौसिखिए कामगारों की कमी नहीं थी, आर्थिक वृद्धि की गति धीमी थी. रफीक कहते हैं, "हमारी माली हालत खाड़ी के देशों के साथ गहराई से जुड़ी है, वहां संकट आते ही हम उसे महसूस करने लगते हैं." वहां काम करने वाले लोगों के पैसे से ही कोझीकोडे के आलीशान भवन बने हैं.


भारत भले ही धनी न हो, उसके कुछ नागरिक बेहद अमीर हैं. पिछले साल 1 लाख 53 हजार भारतीय नागरिकों के पास दस लाख डॉलर से अधिक धन था. समाचार पत्र फ्रांकफुर्टर अलगेमाइने त्साइटुंग में कहा गया है कि एक साल के अंदर इनकी तादाद में 20.8 फीसदी का इजाफा हुआ है. इस प्रकार भारत अब उन देशों में से है, जहां अमीर लोगों की तादाद सबसे अधिक तेजी के साथ बढ़ रही है. इस सिलसिले में मेरिल लिंच की एक रिपोर्ट की चर्चा करते हुए कहा गया हैः --

इस रिपोर्ट में पुश्तैनी अमीरों, खुद कमाए धन से बने अमीरों, या डॉक्टरी और वकालत जैसे पेशे में लगे लोगों के बीच फर्क किया गया है. डॉक्टर या वकील बाकी दो वर्गों से कहीं ज्यादा, यानी अपनी आमदनी का दस फीसदी हिस्सा सामाजिक कल्याण की मदों में खर्च करते हैं. सभी वर्गों के बीच एक समानता है, वे पैसे खर्च करते वक्त सबसे पहले अपने परिवार के बारे में सोचते हैं. छुट्टी मनाने के लिए, या घड़ी, गहने या इलेक्ट्रॉनिक गैजेट खरीदने के मामले में यही सबसे आगे हैं. इस वक्त इनके पास 45 खरब रुपए हैं. यह रकम सिर्फ पांच साल के अंदर पांच गुना होकर 235 खरब तक पहुंच जाएगी.