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02 अक्टूबर 2011

छत्तीसगढ़ में प्रथम रेडियो प्रसारण के पूरे हुए 48 साल

आकाशवाणी के कार्यक्रमों की गुणवत्ता आज भी कायम --- बजाज 
श्रोता संघों ने मनाया आकाशवाणी रायपुर का स्थापना दिवस

प्रथम छत्तीसगढ़ी फिल्म 'कहि देबे संदेश' के निर्माता-निर्देशक श्री मनु नायक हुआ अभिनंदन

रेडियो प्रसारण सेवा के 48 वर्ष छत्तीसगढ़ में पूरे हो चुके हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती पर दो अक्टूबर 1963 को यहां आकाशवाणी के रायपुर केन्द्र के प्रसारण की शुरूआत हुई थी। आकाशवाणी रायपुर का अड़तालिसवां स्थापना दिवस समारोह आज यहां चौबे कॉलोनी स्थित महाराष्ट्र मंडल के सभा भवन में मनाया गया। इस अवसर पर आज से लगभग 46 वर्ष पहले 1965 में छत्तीसगढ़ी भाषा में निर्मित पहली कथा फिल्म 'कहि देबे संदेश' के निर्माता और निदेशक श्री मनु नायक का नागरिक अभिनंदन भी किया गया। छत्तीसगढ़ राज्य भण्डार गृह निगम के अध्यक्ष श्री अशोक बजाज समारोह के मुख्य अतिथि थे। उन्होंने श्री मनु नायक को प्रशस्ति पत्र और स्मृति चिन्ह भेंट कर सम्मानित किया।

मुख्य अतिथि की आसंदी से समारोह को सम्बोधित करते हुए श्री अशोक बजाज ने कहा कि देश के जन-जीवन पर रेडियो कार्यक्रमों का भी व्यापक असर होता है। श्री बजाज ने कहा कि आकाशवाणी के कार्यक्रमों की गुणवत्ता आज भी कायम है। विभिन्न केन्द्रों से गीत-संगीत के मनोरंजक कार्यक्रमों के साथ-साथ किसानों और समाज के विभिन्न वर्गों की जरूरतों से जुड़े ज्ञानवर्धक कार्यक्रम भी प्रसारित होते हैं। इस प्रकार के कार्यक्रमों के जरिए आकाशवाणी द्वारा राज्य सरकार और केन्द्र की विभिन्न जनकल्याणकारी योजनाओं की जानकारी भी आम जनता को दी जाती है, जिसका लाभ जरूरतमंद लोगों को मिलता है। श्री बजाज ने बालिका शिक्षा के महत्व पर प्रकाश डाला और समाज में बेटियों के संरक्षण की जरूरत पर भी बल दिया। शारदीय नवरात्रि का उल्लेख करते हुए श्री बजाज ने कहा कि हमारे भारतीय समाज में महिलाओं को हमेशा देवी के रूप में सर्वोच्च सम्मान प्राप्त होता रहा है। हमारे यहां नदियों को भी माता के रूप में सम्बोधित किया जाता है।


 


स्थापना दिवस समारोह के साथ-साथ आकाशवाणी रायपुर के वरिष्ठ सेवानिवृत्त उदघोषक श्री लाल रामकुमार सिंह की अध्यक्षता में इस अवसर पर आकांक्षा रेडियो लिस्नर्स संस्था, धरसींवा द्वारा रेडियो श्रोताओं के विभिन्न संगठनों के सहयोग से अखिल भारतीय रेडियो श्रोता सम्मेलन भी आयोजित किया गया। समारोह में मुम्बई से आए वरिष्ठ छत्तीसगढ़ी फिल्म निर्माता और निदेशक श्री मनु नायक ने रेडियो श्रोताओं के इस सम्मेलन को अपने लिए एक नया तथा दिलचस्प अनुभव बताया। उन्होंने कहा कि रेडियो कार्यक्रमों के प्रस्तुतकर्ताओं और प्रसारकों को वास्तविक ऊर्जा अपने श्रोताओं से ही मिलती है। श्री मनु नायक ने कहा कि इस प्रकार के सम्मेलनों से रेडियो श्रोताओं और उदघोषकों के बीच भाईचारा बढ़ता है। श्रोताओं से रेडियो वालों को कई अच्छे सुझाव भी प्राप्त होते हैं। छत्तीसगढ़ में 46 वर्ष पहले फिल्म उद्योग की बुनियाद रखने वाले श्री मनु नायक ने इस मौके पर अपनी प्रथम छत्तीसगढ़ी फिल्म 'कहि देबे संदेश' के फिल्मांकन से जुड़े संस्मरण भी सुनाए। उन्होंने रेडियो श्रोताओं को बताया कि इस फिल्म में मोहम्मद रफी, महेंद्र कपूर, मन्नाडे, मीनू पुरूषोत्तम जैसे हिन्दी सिनेमा के अनेक जाने-माने गायकों ने छत्तीसगढ़ी गीत गाकर हमारी माटी का मान बढ़ाया था। फिल्म का पहला गीत छत्तीसगढ़ में प्रचलित पारम्परिक लोक शैली का ददरिया था, जिसे श्री महेन्द्र कपूर और सुश्री मीनू पुरूषोत्तम ने गाया था, जिसके बोल थे ....
कोयली रे कूकै, आमा के डार म,
चले आबे पतरेंगी, नवा तरिया पार म'

इस फिल्म के गीतकार थे स्वर्गीय डॉ. हनुमंत नायडू 'राजदीप' और संगीतकार थे श्री मलय चक्रवर्ती। पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म के अनेक गीत उस जमाने में काफी लोकप्रिय हुए, जिनमें प्रसिध्द पार्श्व गायक श्री मोहम्मद रफी का गाया 'झमकत नदिया बहिनी लागय, परबत मोर मितान' भी शामिल है। रेडियो श्रोताओं के सम्मेलन में आज इस पुराने सदाबहार गीत के प्रस्तुतिकरण से एक बार फिर पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म 'कहि देबे संदेश' की यादें ताजा हो गयी।  अध्यक्षीय आसंदी से श्री लाल रामकुमार सिंह ने भी अपने विचार व्यक्त किए। सम्मेलन को दुर्गा महाविद्यालय रायपुर के पूर्व प्राचार्य प्रोफेसर अनिल कालेले, आकाशवाणी रायपुर के उदघोषक श्री श्याम वर्मा, श्री यादराम पटेल और श्री दीपक हटवार, सहित अन्य अनेक वक्ताओं ने भी सम्बोधित किया। सम्मेलन में आकाशवाणी के श्रोताओं की पसंद पर आधारित फरमाइशी फिल्मी गीतों का जीवंत प्रस्तुतिकरण आकर्षण का केन्द्र रहा, जिसमें श्रीमती वीणा ठाकुर, सुश्री मनीषा जंघेल, श्री राजकुमार गंभीर और श्री दिनेश साहू सहित अनेक श्रोता कलाकारों द्वारा नये-पुराने सदाबहार फिल्मी गीत पेश किए गए। सम्मेलन में अभनपुर निवासी प्रसिध्द हिन्दी ब्लाग लेखक श्री ललित शर्मा सहित आकाशवाणी रायपुर और विभिन्न आकाशवाणी केन्द्रों के उदघोषक तथा अनेक प्रबुध्दजन उपस्थित थे। इस मौके पर अहिंसा रेडियो श्रोता संघ बलौदाबाजार की विशेष बुलेटिन का विमोचन भी किया गया। सम्मेलन के आयोजन में अमलेश्वर रेडियो श्रोता संघ, भाटापारा रेडियो श्रोता संघ और जय छत्तीसगढ़ रेडियो श्रोता संघ पिपरिया सहित अनेक श्रोता संघों के सदस्य और पदाधिकारी भी काफी संख्या में मौजूद थे।

 

30 सितंबर 2011

बिना ड्राइवर की कार

फिल्मों में खुद-ब-खुद चलने वाली कारें तो बहुत देखी हैं, लेकिन अगर सच में ये बन जाएं तो ड्राइवर ढूंढने की चिंता खत्म हो जाएगी। कार अपने आप चलेगी और आप आराम से बैठ कर अपनी नींद पूरी कर सकेंगे।


कारों में महारत हासिल करने वाली जर्मन कंपनी बीएमडब्ल्यू इस दिशा में काम कर रही है. म्यूनिख में प्रोजेक्ट लीडर निको केम्पशन का कहना है कि भविष्य में सभी कारें ऑटो पायलट पर चला करेंगी. रडार, लेजर और कैमरों की मदद से कारें अपना रास्ता खुद ही ढूंढ लेंगी. हालांकि इस के लिए इंतजार करना होगा, "इस तरह की तकनीक को कारों में लाना, जिस से वे रास्ता अपने आप ही ढूंढ कर चलती रहें, इसमें तो अभी काफी समय लगेगा."

 फिलहाल निको केम्पशन 'ऑप्टिमाइजिंग असिस्टेंस सिस्टम' पर काम कर रहे हैं जो कार चलाने में कई तरह से मददगार साबित हो सकता है। मौजूदा आधुनिक कारों में पार्किंग असिस्टेंट की सुविधा आम हो गई है, जिनमें आगे और पीछे सेंसर लगे होते हैं। केवल एक बटन दबाने से कार पार्किंग के लिए तैयार हो जाती है और अपने लिए जगह खोज लेती है। ड्राइवर को केवल एक्सलरेटर और ब्रेक का ध्यान रखना होता है, और छोटी से छोटी जगह में इसकी मदद से कार पार्क करना संभव हो पाता है। इस 'पार्क-असिस्ट' की कीमत तीस से साठ हजार रुपये के बीच है।

जर्मनी की तकनीकी परीक्षण संस्था कुएस के हांस गेओर्ग मार्मिट की सलाह है कि इस तरह की तकनीक में और निवेश करना चाहिए, 'कार पार्क करते वक्त गाड़ी को अगर जरा सी भी टक्कर लग जाए तो आपको अपनी कार की मरम्मत का भी खर्चा उठाना पड़ता है और जिसके साथ टक्कर हुई है उसका भी।'

बीएमडब्यू और फोल्क्सवागेन कंपनियों में इस बात पर शोध चल रहा है कि ड्राइवर के कार में बैठे बिना ही उसे किस तरह पार्क किया जा सके। इस तरह के सिस्टम से कार को ऐसी तंग जगह पर पार्क करने में मदद मिलेगी जहां पार्क करने के बाद ड्राइवर कार से बाहर नहीं निकल सकता। कार को पार्किंग से निकालने के लिए आपको बस रिमोट कंट्रोल का बटन दबाना है, कार का इंजन अपने आप शुरू हो जाएगा और कार खुद ही बाहर निकल आएगी।

हालांकि दोनों ही कंपनियां अभी भी यह बताते हुए हिचकिचा रही हैं कि इस तरह का सिस्टम बाजार में कब उपलब्ध होगा। लोगों के लिए ऐसे सिस्टम बेहद रोमांचक तो हैं, लेकिन साथ ही इस बात का डर भी है कि इस से कार पर उनका कोई नियंत्रण नहीं रहेगा।

29 सितंबर 2011

नवरात्रि पर्व -- मैं भी तो इक माँ हूँ माता ...


            मैं भी इक माँ हूँ माता .........  

नवरात्रि पर्व की आपको हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !




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photo by google ashok bajaj

27 सितंबर 2011

भारत में महिलाओं के साथ कैसा बर्ताव ?

महिलाओं के लिए आइसलैंड बेहतरीन :  भारत 141 वें स्थान पर
 
 
भारत में महिलाओं के साथ अच्छा बर्ताव नहीं किया जाता. 165 देशों में महिलाओं की स्थिति को लेकर न्यूजवीक पत्रिका ने एक सर्वे किया है. इसमें भारत को काफी नीचे यानी 141वें स्थान पर रखा गया है. दिग्गज पत्रिका न्यूजवीक ने महिलाओं के लिए 'अच्छे और खराब स्थानों' को लेकर सर्वे किया. सर्वे में यह देखा गया कि किस देश में महिलाओं को कैसे अधिकार दिए गए हैं और वहां महिलाओं के जीवन का स्तर कैसा है. आइसलैंड को महिलाओं के लिए सबसे उपयुक्त देश बताया गया है. कनाडा, डेनमार्क और फिनलैंड उसके बाद आते हैं. 

धरातल में भारत

एशियाई देशों में फिलीपींस एक मात्र ऐसा देश है जो टॉप 20 में है. भारत को काफी नीचे रखा गया हैं. 165 देशों की सूची में भारत 141वें स्थान पर हैं. बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका और चीन जैसे देश महिला अधिकारों और उनकी देखभाल के मामले में भारत से बेहतर आंके गए हैं. अमेरिका में यूनिवर्सल सोसाइटी ऑफ हिंदूइज्म के अध्यक्ष राजन जेद के मुताबिक भारत आर्थिक रूप से वैश्विक ताकत बनने की राह पर है लेकिन अधिकतर महिलाएं इस बदलाव से अछूती हैं. भारत में महिलाओं को अब भी बराबरी का हक नहीं मिल रहा है. उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है. जेद कहते हैं, "हमें भारत में अपनी महिलाओं को सशक्त करने की जरूरत है. कानून के तहत उनके साथ बेहतर व्यवहार होना चाहिए. उन्हें स्वास्थ्य, शिक्षा और राजनीति में आने का मौका देना होगा. कामकाज के क्षेत्र में भी उन्हें ज्यादा मौके दिए जाने चाहिए."

दुनिया भर में महिलाओं की स्थिति को लेकर हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की भी एक रिपोर्ट आई. उस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में महिलाओं की स्थिति बेहतर नहीं है. भारत में अब भी 39 फीसदी महिलाएं और पुरुष पत्नी की पिटाई को सही ठहराते हैं. शारीरिक  हिंसा का शिकार होने वाली महिलाओं में से सिर्फ 35 फीसदी ही पुलिस में  रिपोर्ट दर्ज कराती हैं. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक प्रसव के दौरान होने वाली मौतों को रोकने के लिए भारत कदम उठा रहा है लेकिन वह वादों से काफी पीछे है.

समस्या का एक नमूना

भारत में आम लोग स्वास्थ्य सेवाओं के लिए सरकारी अस्पतालों पर निर्भर रहते हैं. गांवों और छोटे शहरों में प्रसव के दौरान महिलाएं सरकारी अस्पतालों पर निर्भर रहती हैं. लेकिन कई जगहों पर अस्पताल नाम की चीज ही नहीं है. ज्यादातर सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों, कमरों और अत्याधुनिक मशीनों की कमी है. ऑपरेशन थिएटर में पुराने पंखे दिखाई पड़ना आम बात है. ऑक्सीजन के जंग लगे सिलेंडर, जंग खाई हुई मशीनें हर किसी की निगाह में आ ही जाती हैं. कुछ गैर सरकारी संगठन कहते हैं कि सरकार सरकारी अस्पतालों के प्रति गंभीर नहीं है.

सरकारी अस्पतालों में मैनेजमेंट नाम की कोई चीज नहीं है. डॉक्टरों को इलाज भी करना है और अस्पताल का ध्यान भी रखना है. मशीन खराब होने जाने पर उन्हें अर्जी लिखनी है, अर्जी जिला प्रशासन को जाएगी, फिर वहां से आगे जाएगी. यह एक अंतहीन सी प्रक्रिया है. किसी को पता नहीं कि नए उपकरण कब आएंगे. वहीं निजी अस्पतालों में डॉक्टर सिर्फ इलाज करते हैं, बाकी काम मैनेजमेंट संभालता है. अस्पताल की सफाई, मशीनों की देखभाल और काम काज को व्यवस्थित करने का काम प्रबंधन करता है. यह कोई जादुई नुस्खा नहीं है जो सिर्फ निजी अस्पतालों पर ही लागू होता है. कहीं न कहीं यह बात सच है कि भारत में सरकारी अस्पतालों की संख्या बढ़ाने और उन्हें बेहतर बनाने से ज्यादा ध्यान निजी अस्पताल की फौज खड़ी करने में लगाया गया है.

24 सितंबर 2011

देश की आत्‍मा ही उसकी मूल संस्‍कृति है

पं. दीनदयाल उपाध्‍याय की जयंती 25 सितम्‍बर पर विशेष
 

पं.दीनदयाल उपाध्याय 


                पं.दीनदयाल उपाध्याय एक महान राष्ट्र चिन्तक एवं एकात्ममानव दर्शन के प्रणेता थे. उन्होनें मानव के शरीर को आधार बना कर राष्ट्र के समग्र विकास की परिकल्पना की. उन्होनें कहा कि मानव के चार प्रत्यय है पहला मानव का शरीर , दूसरा मानव  का मन , तीसरा मानव की बुद्धि और चौथा मानव की आत्मा. ये चारोँ पुष्ट होंगें तभी मानव का समग्र विकास माना जायेगा. इनमें से किसी एक में थोड़ी भी गड़बड़ है तो मनुष्य का विकास अधूरा है. जैसे यदि किसी के शरीर में कष्ट है और उसे 56 भोग दिया जाय तो उसकी खाने में रूचि नहीं होगी. यदि  कोई व्यक्ति बहुत ही स्वादिस्ट भोजन कर रहा है  उसी  समय यदि कोई अप्रिय समाचार मिल जाय तो उसका मन खिन्न हो जायेगा. भोजन तो समाचार मिलने के पूर्व जैसा स्वादिस्ट था अब भी वैसा ही स्वादिस्ट है लेकिन अप्रिय समाचार से व्यक्ति का मन खिन्न हो गया इसीलिये उसके लिए भोजन क्लिष्ट हो गया. यानी भोजन करते वक्त "आत्मा" को जो सुख मिल रहा था वह मन के दुखी होने से समाप्त हो गया. पं. दीनदयाल जी ने कहा कि मनुष्य का शरीर,मन, बुद्धि और आत्मा ये चारोँ ठीक रहेंगे तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती है. जब किसी मनुष्य के शरीर के किसी अंग में कांटा चुभता है तो मन को कष्ट होता है , बुद्धि हाथ को निर्देशित करती है कि तब हाथ चुभे हुए स्थान पर पल भर में पहुँच जाता है और  कांटें को निकालने की चेष्टा करता है. यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. सामान्यतः मनुष्य  शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन  चारोँ की चिंता करता है. मानव की इसी स्वाभाविक  प्रवृति को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने  एकात्म मानव वाद की संज्ञा दी. उन्होंने  मनुष्य की इस स्वाभाविक प्रवृति को राष्ट्र के परिपेक्ष्य प्रतिपादित करते हुए कहा कि राष्ट्र की स्वाभाविक प्रवृति उसकी संस्कृति है. देश को किस मार्ग पर चलना चाहिए इस पर चिंतकों में मतभेद हैं कुछ  अर्थवादी ,कुछ राजनीतिवादी तथा कुछ मतवादी दृष्टिकोण के है, इनमें से अलग हट कर पं. दीनदयाल उपाध्याय ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सिद्धांत पर जोर दिया उन्होनें कहा कि संस्कृति-प्रधान जीवन की यह विशेषता है कि इसमें जीवन के मौलिक तत्वों पर तो जोर दिया जाता है पर शेष बाह्य बातों के संबंध में प्रत्येक को स्वतंत्रता रहती है.इसके अनुसार व्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रत्येक क्षेत्र में विकास होता है. संस्कृति किसी काल विशेष अथवा व्यक्ति विशेष के बन्धन से जकड़ी हुई नहीं है, अपितु यह तो स्वतंत्र एवं विकासशील जीवन की मौलिक प्रवृत्ति है. इस संस्कृति को ही हमारे देश में धर्म कहा गया है. जब हम कहतें है कि भारतवर्ष धर्म-प्रधान देश है तो इसका अर्थ मज़हब, मत या रिलीजन नहीं, अपितु  यह संस्कृति ही है.
                पं.दीनदयाल उपाध्याय की मान्यता थी  कि भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थ-नीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा. भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी. विश्व को भी यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्त्तव्य-प्रधान जीवन की भावना की ही शिक्षा दे सकते हैं, राजनीति अथवा अर्थनीति की नहीं ; उसमें तो शायद हमको  ही उल्टे कुछ सीखना पड़े. अर्थ, काम और मोक्ष के विपरीत धर्म की प्रमुख भावना ने भोग के स्थान पर त्याग अधिकार के स्थान पर कर्त्तव्य तथा संकुचित असहिष्णुता के स्थान पर विशाल एकात्मता प्रकट की है. इनके साथ ही हम विश्व में गौरव के साथ खड़े हो सकते हैं.
                        भारतीय जीवन का प्रमुख तत्व उसकी संस्कृति अथवा धर्म होने के कारण उसके इतिहास में भी जो संघर्ष हुये हैं, वे अपनी संस्कृति की सुरक्षा के लिए ही हुए हैं तथा इसी के द्वारा हमने विश्व में ख्याति भी प्राप्त की है. हमने बड़े-बड़े साम्राज्यों के निर्माण को महत्व न देकर अपने सांस्कृतिक जीवन को पराभूत नहीं होने दिया . यदि हम अपने मध्ययुग का इतिहास देखें तो हमारा वास्तविक युध्द अपनी संस्कृति के रक्षार्थ ही हुआ है. उसका राजनीतिक स्वरूप यदि कभी प्रकट भी हुआ तो उस संस्कृति की रक्षा के निमित्त ही . राणा प्रताप तथा राजपूतों का युध्द केवल राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए नहीं था अपितु धार्मिक स्वतंत्रता के लिए ही था. छत्रपति शिवाजी ने अपनी स्वतंत्र राज्य की स्थापना गौ-ब्राह्मण प्रतिपालन के लिए ही की. सिक्ख-गुरुओं ने समस्त युध्द-कर्म धर्म की रक्षा के लिए ही किए . इन सबका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि राजनीति का कोई महत्व नहीं था अथवा राजनीतिक गुलामी हमने सहर्ष स्वीकार कर ली; बल्कि हमने  राजनीति को हमने जीवन में केवल सुख का कारण मात्र माना है, जबकि संस्कृति ही हमारा जीवन है.
                  आज भी भारत में प्रमुख समस्या सांस्कृतिक ही है वह भी आज दो प्रकार से उपस्थित है, प्रथम तो संस्कृति को ही भारतीय जीवन का प्रथम तत्व  मानना तथा दूसरा इसे मान लेने पर उस संस्कृति का रूप कौन सा हो विचार के लिए. यद्यपि यह समस्या दो प्रकार की मालूम होती है, किन्तु वास्तव में है एक ही. क्योंकि एक बार संस्कृति को जीवन का प्रमुख एवं आवश्यक तत्व मान लेने पर उसके स्वरूप के सम्बन्ध में झगड़ा नहीं रहता, न उसके सम्बन्ध में किसी प्रकार का मतभेद ही उत्पन्न होता है. यह मतभेद तो तब उत्पन्न होता है जब अन्य तत्वों को प्रधानता देकर संस्कृति को उसके अनुरूप उन ढांचों में ढंकने का प्रयत्न किया जाता है.
            पं. दीनदयाल उपाध्‍याय ने संस्‍कृति को प्रधानता देते हुये यह सिद्धांत  प्रतिपादित किया कि देश की संस्‍कृति ही देश की आत्‍मा है तथा यह एकात्‍म होती है. इसकी मैलिकता सदैव अक्षुण्‍ण रहती है.
पं. दीनदयाल जयंती के कार्यक्रम की झलकियाँ